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मूलारावना ११७३
अर्थ-इन अहिंसादि व्रतोंके रक्षणार्थ रात्रिभोजन त्यागका उपदेश आचार्योंने किया है. यदि रात्रि में frers लिए मुनिपर्यटन करेंगे तो बस और स्थावर जीवोंका वध होगा. क्योंकि वे रातमें नहीं दीखते हैं. आहार देने बालेका आगमन भार्ग आहारके पदार्थ रखने का स्थान, स्वयं जहां आहार के लिए खडे हुए हैं वह प्रदेश जहां उच्छिष्ट अन्नता है वह स्थान दिया जाने वाला आहार से यह योग्य है अथवा अयोग्य हैं इन का निरीक्षण रातमें करना शक्य नहीं है. दिनमें भी जीवोंका परिहार करना अशक्य है. फिर रात्री में उनका कैसा परिहार हो सकेगा. पत्री वगैरह अन्न परोसने के साधन और अन्न रखनेके पात्र रातमें मोधना अशक्य है.
जिसके विषयोंका सम्यक निरीक्षण हुआ ही नहीं ऐसी पदविभागिका आलोचना अथवा एषणा समिति आलोचना करनेवाले मुनीके सत्यप्रतका कैसे रक्षण होगा. दानका स्वामी सोया होगा तो उसने नही दिया हुआ आहार ग्रहण करने से अचौर्य व्रत नहीं टिक सकता है. किसी पात्रमें दिनमें स्थापन किया हुआ आहार वस तिकामें ले जाकर भोजन करनेसे अपरिग्रहवतका रक्षण कैसे होगा रात्रिभोजनका त्याग करनेसे सर्व व्रत पूर्ण होते हैं. इन व्रतोंके रक्षणार्थ ही आठ प्रवचन माताओंका और सर्व भावनाओंका रक्षण करना चाहिये. तीन गुप्ति और पांच समितिओंको प्रवचनमाता कहते हैं. रत्नत्रयको प्रवचन कहते हैं. इस रत्नत्रयकी ये गुप्ति और समिति माता के समान है. जैसी मात्रा पुत्रका अपाय से रक्षण करती है वैसे गुप्ति और सुमिति व्रतों का रक्षण करती हैं. सर्व भावना भी व्रतका रक्षण करती है.
र्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम, चारित्रमोहका उपशम अथवा क्षयोपशम इनसे युक्त ऐसे आत्मा के द्वारा जो बारबार पाली जाती है उनको भावना कहते हैं.
• किसको कहते हैं ? उत्तर - आमरण मैं हिंसा नहीं करूंगा, झूठ भाषण नहीं करूंगा, दुसरेने नहीं दी हुई वस्तु मैं ग्रहण नहीं करूंगा, मैथुन सेवन नहीं करूंगा और परिग्रहका स्वीकार नहीं करूंगा इस प्रकारका जो आत्मामें परिणाम उत्पन्न होता है. उसको प्रत कहते हैं.
शंका- यह आत्माका परिणाम कथंचित् वैसा ही रहता है आत्मामें स्थिर रहता है ऐसा कहोगे तो यह कहना अनुभवविरुद्ध है. स्वरूप जाननेमें उद्युक्त होता है अथवा श्रद्धान करनेमें अपने चित्तको
अथवा नष्ट होता है ? यदि यह परिणाम क्यों कि जब आत्मा जीवादि पदार्थोंका लगाता है तब उपर्युक्त परिणाम आत्मामें
आश्वास
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