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लाराधना
आश्वास
DOORS
भोजनं भोजनेन, भोजनं पाननेत्येवमादिक संयोजनं यस्य सम्पूछन संभवति सा हिंसाधिकरणत्यनाशेपाता न सा । तुणिसिश मणवचिकाया तुष्टुप्रवृत्ता मनोवाक्षाय मेवा निसशदनाच्यते ॥
अर्थ-पिछी, कमंडलु वगैरह उपकरणोंका संयोग करना जैस ठंडस्पर्शराले पुस्तकका धूपसे संतम कमंडलु और पिच्छीके साथ संयोग करना अथवा धूपसे तपी हुई पिन्छीसे कमंडलु पुस्तकको स्वच्छ करना वर्गरहको उपकरण संयोजन कहते हैं. जिनरा सम्मूच्छन जीवकी उत्पत्ति होगी ऐसे पयपदार्थ दुसरे पेयपदार्थ के साथ संयुक्त करना. अथवा भोज्य पदाथके साथ संयुक्त करना, भोज्य पदाथके साथ अथवा पेयपदार्थको संयुक्त करना, जिनसे जीवोंकी हिंसा होती ऐसा ही पेय और भोज्य पदार्थोंका संयोग निषिद्ध हैं इससे अन्य संयोग निषिद्ध नहीं है.
मन वचन और शरोरके द्वारा दुष्ट प्रवृत्ति करना उसको निसर्ग कहते हैं. अहिसारक्षणोपायमानष्ट
जं जीवणिकायबहेण विणा इंदियकयं सुहं त्थिा तम्हि सुहे णिस्मंगो लम्हा सो रक्खदि अहिंसा ॥ ८१६ ॥ नास्तीन्द्रियसुर्व किंचिज्जीवहिंसां विना यतः ।।
निरपेक्षस्ततस्तस्मिन्नहिंसां पाति पावनीम् ।। ८२५ ।। विजयोदया--जं जीवणिकायषण यस्माज्जीरनिकायघात विना । इंबियमुदं इंद्रियसुख नास्ति । स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यादिसेवा विचित्रा जीवनिकायपीडाकारिणी आरंभेण महतोपार्जनीमत्वात् । तस्मिनिद्रियसुखे । णिस्संगो यस्स पान्याहसां नेट्रियसुखार्थी । तस्मादिद्रियसुखादर मा कृथा इत्युपदिशति मूरिः।
अहिंसाके रक्षणका उपाय आचार्य बताते हैं---
अर्थ-जीवोंका वध किये बिना इंद्रियसुम्बकी प्राप्ति होती ही नहीं. स्त्रीसंभोग करना, वसधारण करना, पुष्पमाला गले में धारण करना इनसे इंद्रियसुख उत्पन्न होना है परंतु खीगंभोगादि कायम जीवहिंसा अवश्य होती है. सी बगरह पदार्थोकी प्राप्ति करनेमें महान् आरंभ करना पड़ता है. इसबास्ते इंद्रिय सुखसे अहिंसाका रक्षण होना नहीं. हे क्षपक ! तू इस इंद्रियसुखमें स्नेह मत कर जो इंद्रिय सुख में इच्छा नहीं करता है वही अहसा का TH करता है।
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1.X.SAKAT
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