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आश्वासः
मूलाराधना
मूलारा- समिदकदो इत्यादि-समिया कणिकाद्रव्येण तो निर्दृतः । पीए उत्पन इत्याच्याहारः ।
कार्यरूपसे परिणत होनेवाले कारणमें यदि शुद्धता हो तो उससे उत्पम होनेवाला कार्य भी शुद्धतायुक्त दीखता है. शरीर शुद्ध नहीं है क्योंकि उसका कारण अशुद्ध है इस विषय का विवेचन
अर्थ-गेहूंके आटेसे बनाया हुआ घृतपूरक पवित्र है क्योंकि, गेहका आटा पवित्र है. वैसे वीर्य और रत्त ये पदार्थ पवित्र नहीं है भनः इनसे उन्पना होनेन ला पदार्थ अर्थात शरीर पर कैसा माना जायगा अर्थात् वह अशुद्ध ही है. शरीरनिष्पत्तित्रामनिरूपणार्थ उत्तरप्रबंधः
। कललगद दसरतं अच्छदि कलुसीकदं च दसरत् ॥ थिरभूदं दसरतं अच्छवि गम्मम्मि तं बीयं ॥ १.०७ ॥ ) दशाहं कलिलीभूतं वशाहं कलुषीकृतं ॥
दशाहं च स्थिरीभूतं यीजं गर्भेऽवतिष्ठते ।। १.३५ ।। विजयोदया-कललगद कललत्वं नाम पर्यायः तं गतं प्रासं बीजं दश विनमा । अछदि वास्ते । कलुसीकर्द च कलुषीकृतं च । वश रावमा अतिष्ठते । थिरभूर्द सरस स्थिरभूतं यावदशदिनमात्रं । अच्छदि आस्ते । गामम्मि गर्म तं बीजं तद्वी॥
नृवेहनिम्पत्तिकम गाथापंचकेन श्याचष्टे
मूलारा-कललगदेति । फललगदं विलीनताम्ररजतद्रव्यकल्पकललत्वपर्यायं प्राप्तं । इसरतं दशाहोरात्रान् । कलुसीक मिभितं । थिरभूदं दृद्वीभूतं । गम्भम्मि गर्भाशये। .
अर्थ-माताके उदरमें वीर्यका प्रधेश होनेपर यहां दश दिनतक पार्यकी कलल नामकी अवस्था होती हैतदनंतर दस दिन पर्यन्त वह कलुष होता है. इसके अनंतर वह दस दिनतक स्थिरपनाको प्राप्त होता है. अभिप्राय यह है कि, मले हुए ताम्र और चांदीका रस परस्पर मिलानेसे जो अवस्था उन दोनोंकी होती है वही अवस्था माताके रक्तसे संयोग होनेपर वीर्यकी होती है, उसको कललावस्था कहते हैं. तदनंतर वह काला होता है उसके इस
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