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आश्वामः
उम्मतो होइ णरो ण गंथे गहोवसिहो वा ।। मूलाराधना
घदि मरुप्पवादादिएहिं बहुधा णरो मरिंदु ॥ ११५७ ॥ उन्मत्तो यधिरो मुको द्रढग नष्टे प्रजायने ।
चष्टते पुरुषो मतु गिरिप्रपतनादिभिः ।। १:५६ ॥ विजयोदया-उम्मत्तो होइ गारो उम्मनो भवति नमः । नए परिग्रहे ग्रहगृहीत व चरते मरनतारादिभिर्मतु ॥ मूलारा-गहोव सिहो वा भूताविष्ट इव । चत्तदि चेष्टते । मरुपवादादिपहिं भृगुपातादिभिः ।।
अर्थ--परिग्रहका नाश होनेपर यह जीय उन्मत्त होता है. पिशाच ग्रस्त मनुष्यके समान चेष्टा करता है. II और पर्वत, अग्नि, पानी इत्यादिकसे भरनेकी इच्छा करता है.
चलादीया संगा संसजति विविहेहिं जंतूहिं ।। आग वि जंतू हवेति गंथेसु सपिणहिदा ॥ ११५८ ।। चेलादयोऽखिला ग्रंथाः संसजति समततः ॥
सति समिहिलाश्चिवास्तस्विन्नागतुकास्तथा ॥ ११५७ ।। विजयोदया–चेलादिगा बेलादिसंगालपावरपरयः परिग्रहाः । संसम्मति सम्मूछनामुपयंति । घिघिहिं जंतूहि नानाप्रकारैजंतुभिः । आगंतुगा वि आगंतुफान जैसवः । गंथेसु सणिदिवा भवंति प्रथेषु सनिहिता भवन्ति । यूकापिपीलिका मकुणादयः । धान्येषु कीटकापसापूादिषु रसजीवाः । तेषामादाने ॥
मूलारा--सिर्जति समच्छन्ति । बनायासे यू कामकुमादिभिः 'धान्यानि कीद कादिभिः । गुढापूपादीनि च रसज प्राणिभिः ।
अर्थ-ओढनके बस नाव णादिक परिग्रहों में नाना प्रकारके सम्मूमलन जीव उत्पन्न होते हैं. ज. चिंटी, मत्कुण वगैरह आगंतुक प्राणी भी आकर परिग्रहोंमें ठहरत हैं. धान्यमें कीडे उत्पन्न होते हैं, गुडके बनाये अपूपादिक खाद्य पदाथोंमें रसस सूक्ष्म जंतु उत्पन्न होते हैं. इस प्रकार परिग्रह जंतुओका उम्पत्ति स्थान होता है.