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मूलारावना
आभास
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प्युपायेन समंधस्यात्मनः कर्मोग्छेदः कर्तुं शक्यते इति भावः ।।
बाह्य मल जबतक दूर न किया जावेगा तबतक ज्ञान: दर्शन, सम्यक्त्य, चारित्र, वीर्य और अध्यायाधत्व । बगैर आत्मगुणोंको ढकनेवाला अंतरंगमल दूर करना अशक्य है. इसका दृष्टांत द्वारा स्पष्टीकरण करते हैं
___ अर्थ--उपरता दर ना निकाल दिला गाव जमल नट नहहोना है. वैम बाह्मपरिग्रह रूप मल जिसके आन्माम उत्पन्न हुआ है एसे आस्माका कर्ममल नए हाना शक्य नहीं है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है,
प्रश्न-परिग्रहसहित जीवको मोक्षकी प्राप्ति क्यों होती नहीं जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य य बाह्य परिग्रह है. और ये दो दय्य मशा रहत ही है. इसलिये यह आस्मा सर्वकाल कमबंधसे बद्ध ही रहेगा. और सर्वकाल बद्ध होनम उसको मुक्ति का अभाव ही होगा.
उत्तर-जीव और अजीबका संबंध रहना परिग्रह नहीं कहलाता है, परंतु लोभादिक परिणाम कर्मका संबंध होने में निमित्त होत हैं. जब आत्मा लोभादिपरिणामों से युक्त होता है तब बाब परिग्रहका ग्रहण होता है. इमलिये जो मनुष्य बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है वह मनमें लोभादिक परिणामोंके विना ग्रहण नहीं करता है. अर्थात लोभादिक विकार जब आत्मामें उत्पन्न होते हैं तब आत्मा गद्य परिग्रहका स्वीकार करता है.
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अतो पो चामुपारत्तेऽभ्यंतरपरिणाममंत्तरेण नयादत्ते इति वदति
रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवागि य उदिण्णा ॥ तो तइया घेत्तुं जे गंथे बुद्धी णगे कुणइ ॥ ११२१ ॥ उदीयते यदा लोभो रागः संज्ञा च गारवं ।।।
शरीरी कुरुते बुद्धिं तदादातुं परिग्रहम् ।। ११५८ ।। विजयोदया-भागो ग्लोमो मोहो समदं भात्रो रामः, द्रध्यगमुगासक्तिलौभः, परिग्रहेच्छा मोहो । ममेद भावः संज्ञा । किंचित् मम भवति शोमन मिति इच्छानुगतं ज्ञानं । नीवोऽभिलापो यः परिग्रहगतः स गौरवशद्धनोच्यते। एते यदोदिताः परिणामास्तदा प्रेथान्यायान् ग्रहीतुं मनः करोति नान्यथा । तस्माद्यो बाह्य गृहाति परिग्रहं स नियोगतो लोभायशुभपरिणामथानेवति कर्मणां बंधको भवति । ततस्त्याज्याः परिग्रहाः ॥
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