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मूलाराधना
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हारयति, कलहं वा करोति । धनायें परुषं वचो बदति विवाद वा कुर्यात्, ईष्यास्याशल्यानि च जायते । अयमेतमै प्रयच्छति इति संकल्प ईर्ष्या । परस्य धनवत्तासहनमसूबा ॥
परिमाणोऽनवसंसृतिविश्रम शुभ परिणामभप्रवृत्तिमनर्थपरंपरं च व्याकर्तुमुत्तरप्रबंधमाह -
मूलारामण्णा परिचा गारव द्विगौरवं । सपरिग्रहम्य च जायेते । पेण परदोषसूचनं । प्रथमहावि श्री हि स्वनरक्षार्थी परस्य होतान्प्रकाश्य वनं नृपादिना धारयति कलहं वा करोवि धनार्थ वा वचो वक्ति, निष्ट विवाद वा करोति । ईसा ईर्ष्या । अयमेतस्मै प्रचच्छति न मझनिति संकल्पं असूया परसंपत्तासहनम् । यदि अशुभ परिणामका संवर न होगा अर्थात् अशुभ परिणाम यदी नहीं रोके जायेंगे तो नवीन कर्मोंका आगमन नहीं रुक सकता है. नवीन कमका आगमन होनसे फिर संसार अनंतकालतक रहेगा ही. परिग्रहके सद्धामें अशुभ परिणाम होते हैं और संसार दीर्घकालका होता है ऐसा विवेचन आग गाथामै आचार्य करते हैं
अर्थ- परिग्रहसंज्ञा का उदय होनेसे आत्मा में परिग्रह के प्रति अभिलाषा उत्पन्न होती है. तदनंतर मैं बड़ा ऐश्वर्यशाली हूं ऐसा अभिमान उत्पन्न होता है. परिग्रहसे मनमें दुष्टपना उत्पन्न होता है. अपने धनका संरक्षण करने में वह सावध रहता है. और दूसरेके असावधानतादिक दोष देखकर उसका धन दूसरोंसे हरण कराता है. कलह करता है- धनके लिये कठोर भाषण करता है. तथा विवाद करता है. इस परिग्रहसे ईर्ष्या, असूया और कपट ये दोष उत्पन्न होते हैं. यह पुरुष इसको धन देता है मेरेको धन नहीं देता है ऐसा भाव उसके मन में उत्पन्न होता है. यह ईर्ष्या दोष है. दूसरोंका धनिकपना सहन न होना असूया दोष है. परवन हरण करनेके लिये उसको ठगना मायाशल्य कहते हैं.
कोधो माणो माया लोभो हास रइ अरदि भयसोगा ||
संगणिमित्तं जायइ दुर्गुच्छ तह रादिमत्तं च ॥ ११२७ ॥ क्रोध लोभ भयं मायां विद्वेषमरतिं रतिम् ॥
द्रविणार्थी निशाभुक्तिं विदधाति विचेतनः ॥ १९६४ ॥
विजयोश्या - तदा कोधी माणो क्रोधः परिग्रहस्तस्य परिणामोऽदाने जायते । धन्योऽहमिति गर्वितो भवति ।
आश्वासः
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