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आश्वास
पृलाराधना
११३३
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चलमात्रपरित्यागी शेषसंगी म संगतः ॥
यतो मतमचलत्वं सर्व ग्रंथोज्झनं ततः ॥ ११६ ॥ विजयोदया- यहोदि संजदो नन संयतो भवति इति । बत्रमाश्रयागन शेषपरिनटसमन्विनः । यत्रादयः शेषः इत्युच्यते । आचलमित्यत्र चलत्यागमात्रमेव यदि निर्दिष्ट स्यायनादम्याग्यि, गृहन मयनः स न भवति एस्मामस्मादाचलक्यं नाम सर्वसंगपारस्यागोऽन मनव्यः इति युतिरूपन्यस्ना इलाम परिग्रहोपलक्षणतायां । किन महायतोपंदशपवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि । सर्वमंगपरित्याग आचलकमित्य निर्दिश स्यम्य ॥
वेल शब्दम्य सकलबाहापरिग्रहीपलक्षणतायां बुन्किनुपम्यस्यनि
गुलारा-सेसमंगे। वनवजगरिग्रहै: ममन्विती मुनुवयनमात्रन्यागन गंको मेव भवनि । ममम्तनोनो हि संयन इन्युच्यते स कथं वनमा त्यजन् नत्वनो च्यपदिश्यते । नम्माहाचलक्यं सदसगपरित्यागः । आचलक्येत्यत्र मूत्र निर्षिष्ठ इत्यस्याथम्य ।।
अर्थ--वस्त्रमात्रका त्याग करने पर भी यदि अन्य परिग्रहों में पुरुष युक्त है तो उसका संयत मुनि नहीं कहना चाहिये. अर्थात वनके साथ संपूर्ण परिग्रहत्याग जिसने किया वही मुनि माना जाता है इसलिय आचलक्यका" अर्थ संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग ऐसा ही होता है. आचलक्य शब्दका वस्त्रत्याग इतनाही अर्थ माना जाय तो बस छोडकर अन्य सब परिग्रहोंका स्वीकार करनेवाला व्यक्ति मुनि माना जायगा-इसलिये संपूर्ण परिग्रहोंका स्याग ही आचलक्य शब्दका अर्थ है ऐसा उपलक्षणसे समझना चाहिये. महात्रतोंका उपदेश देनेवाले सूत्रोंस भी 'आचलक्य' शब्दका अर्थ सर्वसंगत्याग है ऐसा सिद्ध होता है. यदि वस्त्रका ही त्याग किया और बाकी परिग्रहाँका त्याग नहीं किया तो अहिंसादि व्रतसमुदाय मुनिऑमें नहीं रह सकेगा.
कथं यदि चेलमाप्रमेव स्याउ म्यानेतर अहिमादिनतानिन इन्यवानष्ट उत्तरगाथायां
संगणिमित्तं माग्इ अलियवयणं च भणइ तेणिक् ॥ भजदि अपरिमिदमिच्छं सेबदि मेहुणमवि व जीत्रो ॥ ११२५ ॥ परिग्रहार्थ प्राणहन्ति देहिनो बदल्यसत्यं विदधाति मोषणं ।। निषेवते स्त्री श्रयते परिग्रहं न लुब्धबुद्धिः पुरुषः करोति किम् ।। ११६२ ॥
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