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मूलाराधना
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आश्वास
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अर्थ-हे क्षपक : तू दस प्रकारके अब्रमोंका त्याग कर, ब्रह्मचर्यका आचरण कर. हमेशा ब्रह्मचर्यके पालन में सावधान रहना चाहिये. और पांच प्रकारके स्त्रीवैराग्यमें हे क्षपक! तुम तत्पर रहो. वय पालयेत्युक्तं नदेव न झायते इत्यारेकायां तयाची
जीवो चंभा जीवम्मि चैव चरिया हविज जा जदिणो । तं जाण बंभचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ॥ ८७८ ॥ निरस्तांगांगरागस्य स्वदेहेऽपि विरागिणः ।।
जीच ब्रह्मणि या चर्या बग्मचर्य तदीयते ।। ८५० ।। विजयोदया-जीवो बंभा ब्रह्मशब्दन जीवो भण्यते । शानदर्शनादिरूपण बईते इति पा। यात्रलोकाकाशं वर्धते लोकपूरणास्यायां रियाया इति वा । जीवम्मि नेव बहायव चर्या । जीवस्वरूपम्नतपर्यायान्मक पये निरूपयतो वृत्तियो । तं जाण जानीहि । वमयरिय ब्रह्मचर्य | विमुत्तपरदहतित्तिस्स विमुक्तपरवेहव्यापारस्य ।। मूलारा
या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धेश्चर्या पारद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः ।
तद्ब्रह्मचर्य प्रतसार्वभौमं ये पांति ते यांति पर प्रमोदम ॥ ब्रह्मचर्यका रक्षण कर ऐसा आपने कहा परन्तु ब्रह्मचर्य का स्वरूप क्या है ? ऐसी शंकाका उत्तर आचार्य देते हैं..
अर्थ ब्रह्मचर्य इस सामासिक शब्दमें जो ब्रह्म शब्द है उसका अर्थ जीव ऐसा होता है, अथवा बृह धातूका अर्थ वृद्धिगत होना यडना ऐसा है. इस बृह धातूसे ब्रह्म शब्द सिद्ध होता है. ज्ञान और दर्शन रूपसे जो वृद्धिंगत होता है उसको ब्रम कहते है. जीव इन गुणोंसे सृद्धिंगत होता है इस वास्ते इसको बम कहते हैं. अथवा लोकपूरण समुद्धातमें यह आत्मा संपूर्ण लोकाकाशमें अपने प्रदेश पसार कर बढता है इस लिये जीवको ब्रम कह सकते हैं. इस जीवका स्वरूप अनंत पयोयात्मक है ऐसा समझकर उसके स्वरूपमें जो रमामण होने की क्रिया उसको ब्रह्मचर्य कहते हैं. इतरोंके शररिमें प्रवृत्ति करना अर्थात् उसके देहको आलिंगन करना वगैरे क्रियाओंसे जो विरक्त हुआ है वह मुनि अपने आत्माके स्वरूपका-उसके ज्ञान, दर्शन चारित्र वगैर शुद्ध गुणोंका विचार कर उसमें ही तृप्त होता है इसलिये ऐसे मुनिका ब्रह्मचर्य विशुद्ध होता है.
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