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भाश्चाम:
मुलारामना
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क्रोधानुमतकस्यसमारंभः, मानानुमतकायसमारंभः, मायानुमतकायसमारंभः, लोभानुमतकायसमारंभः इति द्वादशधा. समारंभः । क्रोधकृतकायारंभा, मानकृतकायारंभा, मायाएतकायारंभा, लोमकतकायारंभः । क्रोधकारितकायारेम: मानकारितकायारंभः, मायाकारितकायारंभा, लोमकारितकायारंभः । क्रोधानुमतकायारंभः, मानानुमतकायारंभः, मायानुमतकायारंभः । लोभानुमतकाथारंभः । इति द्वादशधा आरंभः । एवं पते संविदिताः कायारंभाः पदप्रिंशत् ! एन सपिडिताः जीवाधिकरणास्रवमेदा अष्टोत्तरशतसंख्या भवन्ति ।
अब प्रथम जीवराधिकरणके भेद कहते हैं.
अर्थ-हिंसा, चोरी बगैरह पापकार्योंमें प्रमादी होकर प्रयत्न करना सरंभ कहाता है. हिंसादिक कार्य करनेके लिये शखादिकोश मंटर करना समपारी बनाता है. और संचित किये शस्त्रादिकासे हिंसादिकार्य करना, शुरु करना उसको आरंभ बोलते है. योग शब्दसे मनायोग, वचन और काययोगका ग्रहण करना चाहिय. संरंभ, समारंभ आरंभ, मनोयोग, वचन योग, और काय योग. कृत, कारित और अनुमोदन और कषाय इनके द्वारा हिंसादिक पाप प्रवृत्तियोंको गुणित करनेपर प्रथम जीवाधिकरणके भेद होते हैं. चैतन्यवान् आत्मा प्रयत्नपूर्वक व्यापार करता है अतः प्रथम संरंम कहा है. उपायके बिना साध्य सिद्धि नहीं होती है इस लिये प्रयत्नके अनंतर उपायोंका-साधनौका संग्रह करना इसको समारंभ कहते हैं. अतः संरंभके अनंतर समारंभ कहा गया है. कार्यकी शुरुआत साधनोका संग्रह होनेके अनंतर होती है. इस लिये आरंभका उसके अनंतर उल्लेख किया है.
स्वातंत्र्य विशिष्ट आत्मा जो कार्य करता है वह कृत है, दूसरेके प्रयोगकी अपेक्षासे जो सिद्ध होता है उसको कारित कहते हैं. जो कार्य स्वयं करता ही नहीं और दूसरोंसे कराता नहीं परंतु स्वयं करने वालेको सम्मति देता है उसको अनुमोदन कहते हैं.
क्रोधसे स्वयं हिंसाकार्य में प्रयत्न करना उसको क्रोधकृतकाय संरंभ कहते हैं. मान, माया और लोभसे स्वयं हिंसा कार्यमें शरीरके द्वारा जो प्रयत्न करना उसके मानकृत कायसंरंभ: मायाकृत काय संरंभ, और लोभ. कृत काय संरभ ऐसे चार भेद हुए,
क्रोध, मान, माया और लोभक वश होकर हिंसा कार्यमें दूसरोंको शरीरके द्वारा जो प्रवृत्त करना उमको क्रमसे क्रोधकारित कायसरंभ, मानकारित कायसंरभ, मायाकारित कायसरंभ और लोभकारितकाय संरंभ से चार भेद होते हैं.
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