________________
मूलाराधना
वासः
०१८
ख्यान कहते हैं. इंगिनीमरण और प्रायोपगमन मरण ऐसे दो भेदोंका लक्षण आचार्य आगे कहेंगे. इन मरणों के द्वारा शरीरका त्याग करना उसको भी त्यक्त कहते हैं.
जीव जब था तब वह जैसा नमस्काररूप उपयोगको कारण था वैसा यह भी शरीर नमस्कारके प्रति उपयोग लगानका कारण या जतापही यह शरीर है ऐसा ज्ञान शरीरको देखनेसे होता है इसलिये भूतशरीर में भी नमस्कारका प्रयोग कर सकते हैं. जिसमें भविष्यकालमें नमस्कारके प्रति उपयोग होगा वह भावि कहाताहै.
नमस्कार विषयक ज्ञानके तरफ जिसका उपयोग लगा है उसको आगम भावनमस्कार कहते हैं. जिनको नमस्कार करना योग्य है ऐसे अहंदादिक परमेष्ठिओं के गुणों में अनुरक्त होकर अपने दो हाथ जिसने कमलकलिकाकार किये हैं तथा जो नमस्कार कर रहा है उसको नो आगम भावनमस्कार कहते हैं...
इस नमस्कारका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान झने अनुयोगों के द्वारा वर्णन करते हैं
अहंदादिकी गुणों में अनुरागी होकर जो आरमा वचनसे स्तुति करता है और मस्तक नम्र करता है उसकी । इस अवस्थाको नमस्कार स्वामी-सम्यग्दृष्टि इस नो आगम भार नमस्कारका स्वामी है. इस नमस्कारके ये साधन है.- मति श्रुतज्ञावरण कर्मका क्षयोपशम, दर्शन मोहका उपशम क्षय और क्षयोपशम ये बाह्य साधन है आत्मा अन्तरंग साधन है, अर्थात् प्रत्यासम्मभव्य अन्तरंग साधन है. आधिकरण--आत्मामें यह नमस्कार रहता है. अतः वह आधार है. इसकी स्थिति अन्तमुहतकी है. अईदादि पंचपरमेष्ठिओंके अपेक्षासे इसके पांच प्रकार है, अथवा अहंदादिकों में अनेक विकल्प हैं इस लिये भी नमस्कारके अनेक भेद होते हैं. अर्हन्तके सामान्य केवलि अहेत, गणधर केवलि अईत, तीर्थकर केवलि अईत ऐसे भेद हैं, सिद्धोंके भी गति सिद्ध तीर्थसिद्ध, क्षेत्रसिद्ध, लिंग सिद्ध ऐसे अनेक भेद हैं इनकी अपेक्षासे नमस्कारके भी अनेक भेद होते हैं.
-..- .- - ..मणमा गुणपरिणामो बाचा गुणभासणं च पंचपहं॥
कारण संपणामो एस पयस्थो णमोक्कारी ॥ ७५९ ॥ बिजयोदया- नमस्कारसूत्रेण ' णमो लोर सयसाधूणं ' इत्यत्र लोकप्रहणं सर्वप्रहूर्ण प्रत्यकमभिसंघ
९१८