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लाराधना
आश्वासः
णाणी कम्मस्स खयत्थमुडिदो णोद्विदो य हिंसाए ।
अददि असढो हि यत्थं अप्पमत्तो अवधगो सो ॥८.५।। शुभयरिंगभसमन्वितस्यायामनः स्थशरीरनिमित्तान्यप्राणिप्राणवियोगमात्रेण बंधः स्यान कस्यचिन्मुक्ति स्यात् । योगिनामपि वायुकायिकवधनिमिसयंधलङ्कापात् । अभाणि च
जदि सुद्धस्स य बंधी होहिदि बाहिरगवत्थुजोगेण ।।
णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवघहेदु ॥ ८०६ ॥ तस्मानिश्वयनयाश्रयेण पाण्यंतरप्राणवियोगापेक्षा हिंसा जिसके दोष आप कहते हैं उस हिंसाका क्या स्वरूप है । इस प्रश्नका उत्तर
अर्थ-हिंसासे विरक्त न होना अथवा हिंसा करनेके परिणाम होना अर्थात मैं प्राणिके प्राणोंका घात करूंगा ऐसा विचार रखना हिंसा है. प्रमत्तयोग प्राणों का नाश करता है. विकथा, कषाय वगैरे पंधरा प्रकारके परिणामों को प्रमाद कहते हैं, इस प्रमादसे युक्त हुए प्राणीको प्रमत्त कहते हैं. ऐसे प्रमत्तका जो योग अर्थात् मनत्रचन और शरीरका व्यापार उसको प्रमत्तयोग कहते हैं. इस प्रमत्तयोगसे अपने भावप्राणोंका और दूसरों के द्रव्य प्राण, और भाव प्राणोंका नाश होता है, इसलिये अमच योगको हिंसा कहते हैं.
अन्य आगमग्रंथमें हिंमाके विपघमें ऐसा लिखा है -
रागी, द्रुपी अथवा मूह बनकर आत्मा जो कार्य करता है उसमें हिंसा होनी है. प्राणीक प्राणोंका वियोग तो हुआ परंतु रागादिक विकारोंसे आत्मा यदि उस समय मलिन नहीं हुआ है तो उससे हिंसा नहीं हुई है ऐसा समझना चाहिये. वह अहिंसक ही रहा ऐसा समझना चाहिये. अन्य जीवके प्राणोंका वियोग होनेसेही हिमा होती है ऐसा नहीं अथवा उनके प्राणोंका नाश न होनेस अहिंमा होती है ऐसा भी नहीं समझना चाहिये, परंतु आत्माही हिंसा है और यही आहिसा है ऐसा मानना चाहिये. अर्थात प्रमाद परिणतआत्मा ही स्वयं हिंसा है और अप्रमत्त आत्माही अहिंसा है. आगममें भी ऐसा कहा है
आत्मा ही हिंसा है और आत्माही अहिंसा है ऐसा जिनागममें निश्चय किया है. अप्रमत्त अर्थात् प्रमाद रहित आत्मा को अहिंसक कहते हैं, और प्रमादसहित आत्माको हिंसक कहते हैं. जीवके परिणामोंके अधीन बंध