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आश्वास
मूलारावा
णाणोयओगरहिदेण ण सक्को चिचणिग्गहो काउं ।। गाणं अकुसमृदं मत्तम हु चित्तहत्यिस्म ॥ ७६० ॥ न शक्यते वशीकर्तुं बिना ज्ञानेन मानसं ॥
अंकुशेन विना कुत्र क्रियते कुंजरो वशे ॥ ७९० ॥ विजयोदया-णाणुयभोग इत्येततयाख्यानायोत्तरः प्रबंधः--गाणोवोगरहिदेण शानपरिणामरहितन पुंसा । सको चित्तणिग्गहो कार्ड चित्तनिग्रहः कर्तमशक्यः। कस्मात् ज्ञानमंतरेण न शयश्चित्तनिग्रहः कर्तुमित्यारकायां-शाने निमहकरणे साधकतम ततस्तदंतरेण न भवति चित्तनिग्रह इत्यावशे। गाणं अंकुसभूदमत्तस्स हुचित्तइस्थिस्स शानमंकुशभूतं मत्तस्य चिहस्तिनः। इदमत्र चोद्यते-इह चित्तशब्देन किमुच्यते ! अन्यत्र सचित्तशीतसंवृतइत्यादी चिसं चैतन्य - मिति गृहीतं ददापि यदि तदेव तस्य निग्रहो नाम का ? अश्रोच्यते-चिपर्ययज्ञानतया अशुमध्यानलेश्यातया या परिणतिः प्राणभृतो यस्य तस्य निरोधो यथार्थज्ञानपरिणामेन कियते । परिणामो हि परिपाामिनं निरुणद्धि, परिणामोऽस्मद्विरुद्धस्त्वथा नादात्तश्यः इति । यथा मत्ती हस्तीन कचिवयवतिष्ठते बंधनमईनादिकं बिना तदभिसहस्त्यपि यत्र कुत्र चनाशुभाष रिणाम प्रयतते इति ||
अर्थ-ज्ञानपरिणामसे रहित पुरुष अपने चित्तका निग्रह करनमें समर्थ नहीं होता है. अर्थात ज्ञान मनको जीतनेमें साधकतम है उसके बिना मन अन्य उपायसे नहीं जीता जा सकता है. अस मत्तहाथीको अंकुश वश करता है वैसे उन्मत्त हुए इस चितरूप हार्थाको वश करनेके लिये वह ज्ञान अंकुशके समान है.
प्रश्न-यहाँ चित्तशब्दसे क्या अभिप्राय समझना चाहिये. 'साचत्तशीतसंवृत' इत्यादि सूत्र में चित्तशब्दका अर्घ चैतन्य ऐसा माना है. क्या यहां भी यही अर्थ मानते हो? तो- 'चैतन्यनिग्रह करना' इसका क्या अभिप्राय समझना चाहिये..
उत्तर--जो विपरीत झानरूप अथवा अशुमध्यानरूप वा अशुभलेश्यारूप परिणति जीवकी होती है उसका निरोधही आत्माके यथार्थ ज्ञानरूपपरिणतीसे युक्त होता है.परिणाम परिणामीका विरोध करता है जैसे हमारे विरुद्ध तुम अपने परिणाम धारण करना योग्य नहीं है. जैसे मचहत्ती बंधन मर्दनादिकके बिना कहां परभी स्थिर रहता नहीं है. वैसा यह मनरूप हाथी भी जिस किसी अशुभ परिणामोंमें प्रवृत्त होता है.