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मूलाराधना
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सम्यक्त्वशानदर्शनची गुणात्मका महन्त इत्येवं श्रद्धानात्मको भावनमस्कारः सम्यग्दर्शनात्मकत्वात् । समीचीनं तपो ज्ञानं, चारित्रं च प्रवर्तयति । न ह्याप्तगुणश्रद्धानं विना शब्दभूतस्य प्रामाण्यमयं व्यवस्थापयितुमीशः । वक्तृप्रामाण्याद्विना नवचनायाः न होन्द्रियविज्ञानमयथार्थमिदमेत यथार्थमिति वा विवेक्तुं शक्यते अस्मदादिना । अर्थयाथात्म्य दिनो वीतरागद्वेषस्य च यतो वचस्ततो यथार्थमेव विज्ञानं जनयति, गायथार्थमिति समीचीनवानस्य सम्य ज्ञानपुरस्सरतया चरणं तपश्च समीचीनं सत्कर्मापनोदे निमित्तं नान्यथेति प्रवर्तकता भावनमस्कारस्य ततः प्रभावत्वाद्भावनमस्कारः संसारोच्छेदकारीति व्यपदिश्यते ॥
यदि आप भावनमस्कारसे ही संसारनाश होता है ऐसा कहते हो तो 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा. क्यों कि नमस्कार ही केवल कमका नाश करनेमें उपाय है। ऐसा आपका अभिप्राय है. सम्यग्दर्शनादिक तीनो मिलकर मोक्षका उपाय है और आपके मतसे केवल नमस्कार ही मोक्षोपाय है. इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं---
अर्थ -- गज, रथ, अश्व और पायदळ इस प्रकार चार सेनाओंका जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है. वैसे यह भावनमस्कार भी मरणसमय में तप, ज्ञान, चारित्रका प्रवर्तक है.
शायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनंतवीर्य ये अर्हतके गुण हैं ऐसी श्रद्धा करना यही भावनमस्कार हैं. यह नमस्कार सम्यग्दर्शनात्मक ही है, इससे ही मुनिराज के ज्ञान, तप, और चारित्र, कर्मनिर्जरा करना, संबर करना इन कार्योंमें मवृत्त होते हैं. आप्तगुणांवर यदि श्रद्धा न होगी तो यह भावनमस्कार शब्दश्रुतका प्रामाण्य सिद्ध करनेमें समर्थ न होगा. वक्ता में यदि प्रमाणता न होगी तो उसके बचन प्रमाणभूत कैसे माने जायेंगे. इंद्रियज्ञान से यह यथार्थ है और यह अयथार्थ है इसका निर्णय कर नहीं सकता, जिनके रागद्वेष नष्ट होगये हैं और जो पदार्थोंका सच्चा स्वरूप जानते हैं उनका वचन अर्थात् आगम प्रमाणभूत मानना चाहिये उसको अप्रमाण समझना योग्य नहीं हैं. सम्यग्दर्शनसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह सम्यग्ज्ञान है. उसी तरह चारित्र और तप भी जब उत्कृष्ट निर्दोष होते हैं तब कर्मनाश करनेमें निमित्त हो जाते हैं अन्यथा नहीं. इसलिए भावनमस्कार इनका प्रवर्तक है ऐसा सम झना चाहिए. यह भावनमस्कार प्रभावसपत्र होनेसे संसारका उच्छेद करता है ऐसा मानना अयोग्य नहीं है
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आश्वासः
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