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आचा
मूलाराना
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लगी, तो नेत्र, उच्चकुल, सुभगता और वचनशक्ति सब प्राप्त होना विफल है. वैसे उत्तम बुद्धि प्राप्त होनेपर भी यदि मनुष्य आप्तका वचन नही सुनेगा तो वह बुद्धि भी कुछ कामकी नहीं है ऐसा समझना चाहिये जैसे कमलरहित सरोवर सुंदर नहीं दीखता है वैसी आमवचन न सुननेवाली बुद्धि भी शोभाहीन ही है ऐसा समझना चाहिये. यहाँ श्रवण शब्द कुछ भी सुनना इस सामान्य अर्थ का वाचक नहीं है. परंतु आतके वचन सुनना यही श्रवण शब्दका अर्थ है. श्रवण भी श्रद्धान रहित सुलभ है. जैसे जिनेश्वरने कहा है वैसाही श्रद्धानगुणयुक्त श्रवण जगतमें दुर्लभ है, दर्शनमोहका उदय होनेसे यह श्रद्धान जीवको प्राप्त होना कठिन है. पदार्थ का स्वरूप जान लेनपर भी और श्रद्धा करनेपर भी चारित्रमोहकर्मका उदय होनेपर रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करना बडा ही कठिन है. इसलिये हे क्षपक तुमको यह दुर्लभ श्रामण्य-मुनिपनामी प्राप्त हुआ है अतः इसको तृणके समान जानकर मत त्यामो.
जीवघातयोपमाहात्म्यं गायावयेन कथयति
तेलोकजीविदादो वरेहि एकदरमत्ति देवेहिं । भाणदो को तलोक वरिज संजीविदं मुच्चा ५७८२॥ देवैरेकं वृणीष्व त्वं त्रैलोक्य विनव्ययोः ॥
इत्युक्तो जीवितं मुक्या लोक्य घृणुतंत्र कः 11 ८१३ ।। विजयोध्या- त्रैलोक्यजीवितयोरेर्क गहाणेति देवधोदितः कत्रलोक्य वृणीत । जीवस्य जीवितं त्यकवा, जीवनमेव प्रशीतुं वांछति । यस्मादेवं त्रैलोक्यस्य मूल्यं जीवितं सर्वप्राणिनस्तम्माज्जीवित्तमातो जीवस्य जीवादन्यत्रावृत्ते जीवस्यह वचनमनार्थकमिति चेत्र, उत्सरेण संबंधात् । जीपस्य इंतुस्रलोक्ययातसमो महान्दोषो मयतीति यावत् ।।
जीवघातसे उत्पन्न हुए दोष का महत्त्व आचार्य दो गाथाओंसे दिखाते है
अर्थ-ग्रलोक्य और जीवित इन दोनोंमसे तुम कोई एक ग्रहण कर सकते हो ऐसा देवोंके द्वारा कहाजानेपर मनुष्य जीवन को ही लेगा. क्योंकि यह जीवन त्रैलोक्यकी कीमतका है, अर्थात संपूर्ण जीवोंका जीवन त्रैलोक्यके बराबरीका है. इस वास्ते जीवका घात करना त्रिलोकका घात करनेके समान है. दापर्य-जीवघात करना यह महान् दोष है.
STOTRA
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