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मूलाराधना
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याज्ञायैः परिहरन्ति न येति परीक्ष्य अयोग्य यात्यकराणां स्वागः | योग्यानां चानुमा पूर्वपराशेसतेः संस्तरयो पकरणानां च शुद्धिं कुरुतेति आज्ञापयता मच्छुद्धिः कृता भवति ॥
तात्कालिकीं गुरुसंपाद्यासनुशिष्टि मपचविष्यन्सामान्यविशेषाभ्यां गाथात्रयेण तामुद्दिशति । वत्र सामान्यत
स्वागत्
महारा--सोमइत्ता वैयावृत्यकरादिचतुष्कं संशोध्य सुपरीक्ष्यायोग्यानां त्यागो योग्यानां चानुझा वैया वृक्यको शोधना । शय्यादिश्रयस्य च विधिविखनम् । सहेंद्रण सवना निष्यत्वादिगणस्य सम्यक्त्वादिभाव नया निराकरणं । भोः नृपकराज | इन्द्राणि संप्रति प्रत्यासन्ने मरणक्षणे । सुतरां प्रयत्नविधानार्थमिदमुच्यते ।
अर्थ - मिथ्यादर्शन, माया, और निदान ऐसे तीन शल्य है, तत्वश्रदानसे मिथ्यादर्शनका, सरलपनानिष्कपटना, निष्कपटतासे मायाशल्यका और भोगांनेःस्पृहतासे निदानशल्यका नाशकर जिसने रत्नत्रय निर्मलता प्राप्त कर ली है ऐसे हे क्षपक मुने! तू जो वैयावृत्य करनेवाले, वसतिका, उपधि और संस्तरकी शुद्धि करके इस समय सल्लेखना करो. व्याधि-रोग, उपसर्ग, असंयम, मिथ्याज्ञान और परीषहोंको विपति कहते हैं. ऐसी विपत्ति आनेपर जो उसका प्रतिकार करना उसको वैयावृत्य कहते हैं. इस वैयावृत्य करनेवाले परिचारकोंको वैयावृत्य कर कहते हैं. वैयावृत्य करनेवाले मुनि संयम असंयमके ज्ञाता है या नहीं इसका विचार क्षपकको करना चाहिये. यदि वे अयोग्य हो तो उनका त्याग करना चाहिये. वे असंयम का मन, वचन और शरीरसे त्याग करते हैं या नहीं इसकी परीक्षा करके अयोग्य हो तो त्याग करना चाहिये, और योग्य परिचारकोंको वैयावृत्य करनेके लिये आज्ञा देनी चाहिये. दिनके पूर्वकालमें और अपरान्हकालमें वसति, संस्तर और उपकरणोंकी तुम दररोज शुद्धि करो ऐसी परिचारकाको आज्ञा देनी चाहिये. ऐसी आज्ञा देनेसे उसने उनकी शुद्धि की ऐसा सिद्ध होता है.
मिच्छत्तरत य वमणं सम्मन्ते भावणा परा भन्ती ॥ भावणमोक्काररदिं णाणुवजुत्ता सदा कुणसु ॥ ७२२ ॥ मिथ्यात्वमनं दृष्टिभावनां भक्तिमुत्तमाम् ॥ रति भावनमस्कारे ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ।। ७५१ ॥
भाश्व
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