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आश्वासः
मूलाराधना
HIRORA
मणिचूल है. इसने अपने मित्रको-सगरचक्रवतीको बार बार समझाकर भोगादिकोंसे विरक्त किया था. जिसके ऊपर प्रेम है उसको बारबार समझाकर सन्मार्गमें लगाना यह प्रेमानुराग कहाता है. मज्जानुराग यह पांवों में था अर्थात वे जन्मसे लेकर आपसमें अतिशय स्नेहयुक्त थे, वैसे हे क्षपक तूं धर्मानुरागसे जैनधर्ममें स्थिर रहकर उसको कदापि मत छोड.
अर्थ--जो पुरुष सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हुआ है वह भ्रष्टही समझना चाहिये. दर्शनभष्ट जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती नही. चारित्रभ्रष्ट जीव मुक्तिको प्राप्ति कर सकते हैं परंतु दर्शनभ्रष्ट जीवको मुक्तिलाभ होता नहीं.
अर्थ--जो जीव दर्शनसे भ्रष्ट हुआ है उसको भ्रष्टतम कहना चाहिये. चारित्रभ्रष्ट जीव दर्शनसे भ्रष्ट नहीं माना जाता है. अर्थात् चारित्रभ्रष्ट जीवसे दर्शनभ्रष्ट जीव अतिशय भ्रष्ट है. जो चारित्रसे भ्रष्ट हुआ है, परंतु सम्बाद से पुल ही बुला है उसको सिमपानकी श्रीति नहीं है. शंका-असंयमसे उत्पन्न हुए पापके भारसे जीवको संसारमें भ्रमण करना पड़ता ही है अतः चारित्रभ्रष्ट जीवका संसारपतन नहीं है ऐसा आप क्यों कहते हो ? इस प्रश्नका उत्तर-चारित्रभ्रष्ट जीव चारो गतिओंमें भ्रमण करता नहीं. उसका संसार अल्प रहता है अत: उसको संसार नहीं है ऐसा कहा जाता है. जैसे किसीके पास थोडासा धन है तो भी वह धनी कहलाता नहीं, परंतु दर्शनभष्ट मनुष्यको अर्ध पुद्गलपरिवर्तन कालतक संसारमें भ्रमण करना पडता है इसलिये वह अत्यन्त निकृष्ट है.
पककस्थ सम्यग्दर्शनस्य माहात्म्यं कथयनि
सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणामं ॥ जादी दु सेणिगो आगसि अरुहो अबिरदो वि ॥ ४० ॥ श्रेणिको ब्रतहीनोऽपि निर्मलीकृतदर्शनः ।।
आहंत्यपदमासाद्य सिद्धिसौध गमिष्यति ॥ ७६९ ॥ विजयोदया-सुर्वे शुद्धे । सम्मत्त सम्यक्त्वे । शंकाचतिचाराभावात् । अविरदो चि अप्रत्याख्यानावरण कोधमानमायालोभानामुदयात हिंसादिनित्तिपरिणामरहितोऽपि । तित्थयरणामकम्मं तीर्थकरत्वस्य कारणं कर्म अर्ज यति । विनयसंपन्नताविरपि तीर्थकरनामकमगो हेतुरेव नतः कोऽतिशयो दर्शनस्य इति चेत् दर्शने सस्येव तेषां तीर्थ
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