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मूलाराधना
माश्वास
है. जो भोजन करना चाहते हैं उनको भी चिन्न उपस्थित होता है. मुनि के साबध आहार लेनेमें उनको संकोच | होता है. अथवा उनको उद्वेग क्रोधादिक विकार उत्पन्न होते हैं. यह आसन अपवित्र है तो भी ये इसपर कैसे
चैठते हैं ऐसा विचार मनमें उत्पन्न होनसे वे कोपयुक्त होते हैं. ये यति त्रियों के बीच में क्यों बैठने है यहां से क्यों अपने स्थानपर जाते नहीं.
म्नान करना, उबटन लगारा, शरीरक अवयव धोना इन क्रियाओं को 'वाकुस' कहते हैं. ठंडे पानीसे अथवा उष्ण पानीमे, नेवमें अंजन लगाना, शरीरपर उबटन लगाना इन क्रियाओस शरीरपर रहनेवाले प्राणी मर जाते हैं तथा चिल में रहने वाले प्राणी, जमीन के छोटे छोटे छिद्रों में रहने वाले चाँटी वगैरे कृमि नष्ट होते हैं, इसलिये स्नान मुनिओंको निषिद्ध माना है. मुनिओंको आमरण यह घोर बन पालना चाहिये. आगमांतर में भी यही अभिप्राय लिखा है.
लोध्र वगैरह सुगधी पदार्थीका उबटन शरीरपर मुनि नहीं लगाते है.
लिंग विकासनक्रियाको लिंग कहते हैं. इसका मुनित्याग करते हैं, न दिया हुआ पदार्थ लेना और रात्रि मोजन इनका मुनिओं को त्याग रहता है. न दी हुई वस्तु लेना मानो उस वस्तुके मालिकका प्राण ही लेना है. धन प्राणीओंका बाह्य माण है, जो दुसर्गेका धन हरण करते है राजा उसको दंडित करता है. रात्री भोजन करना अनेक असंयमों का मूल कारण है. रात्रमें भ्रमण करने से स्थावर और त्रस जीवों को बाधा पोहोंचती हैं. रात्री भोजन करन में अयोग्य पदार्थ, और त्यागा हुआ पदार्थ का भी सेवन होता है. रात्रकालमें दाताकी परीक्षा नहीं हो सकती है. रात्री अपने हस्तपुटसे भाजन करत समय जा अब नीचे जहां गिरता है वह भूप्रदेश, जहां अन्नकी स्थाली रखते हैं वह प्रदेश और दायक जहाँस आकर आहार देता है वह प्रदेश, आहार देते समय वह जहां खडा होता है वह प्रदेश और स्वयं मुनि जहां खडे हुए हैं बह प्रदेश ये जीवोंसे रहित हैं या सहित हैं इनका निर्णय रातम नहीं होता है. इस बास्ते रात्री आहार लेना योग्य नहीं है. मैथुन करना, परिग्रह रखना, शूट बोलना इनका मुनि त्याग करते हैं,
जाणं दलणतबीरिय य मणवयणकायजोगेहि || कदकारिंदणुमाद आदपरपओगकंग्ण य ॥ ६१. ॥