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मूलाराधना
आश्थामा
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लगे तो उनपर क्रुद्ध होना, बहुत यतिओं को वसत्तिका मत दो ऐसा कहना, वसतिका की सेवा करना अथवा अपने कुलके मुनिओं की सेवा करना, निभित्तादिकों का उपदेश देना, ममत्वसे ग्राममें, नगरमें अथवा देश में रह. नेका निषेध न करना, अपने संबंधि यतिओं के सुखसे अपने को सुखी समझना और उनको दुःख होने अपने को बुखी समझना, पार्थस्थादि मुनिऑकी वंदना करना, उनको उपकरणादिक देना, उनका उल्लंघन करने में सामध्ये न रखना. इत्यादि कृत्योंसे जो दोप होत है उनकी आलोचना करनी चाहिये.
सद्धिका त्याग करने में असमर्थ होना, ऋद्धि में गौरव समझना, परिवार में आदर रखना, पियभाषण करके और उपकरण, देकर परकीय वस्तु अपने वश करना इसको ऋद्धिगौरव कहते हैं. इष्टरसका त्याग न करना, अनिष्ट रसमें अनादर रखना, इसको सरगौरव कहते हैं. अतिशय गोजन करना, अतिशय सोना इसको मातगौरव कहत हैं. इन दोषाकी आलोचना करनी चाहिये.
परके वश होनेसे जो अतिचार होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है-उन्माद, पित्त, पिशाच हत्यादि कारणासे परवा होनेसे अतिचार होते हैं. अथवा ज्ञानिक लोकोंसे पकडनेपर बलात्कारसे इत्र, पुष्प वगैरहका सेवन किया जाना, त्यागे हुए पदार्थीका भक्षण करना, रात्रिभोजन करना, मुखको सुगंधित करनेवाला पदार्थ, तांबुल बगरह भक्षण करना, स्त्री अथवा नपुंसकोंके द्वारा बलात्कारसे ब्रह्मचर्यका विनाश होना, एसे कार्य परवशतासे हानय अतिचार लगते हैं. पृच्छना. अनुप्रक्षा वगैरह चार प्रकारके स्वाध्याय और अवश्यक क्रियाओंमें अनादर आलय करना. इनकी आलोचना करना पकका कतव्य है.
अबधि शब्दका अर्थ माया होता है. गुप्त रीतीसे अनाचारमें प्रवृत्ति करना, दाताके घरका बोध करके अन्य मुनि जानेके पूर्व में बहा आहारार्ध प्रवेश करना, अथवा किसी कार्यके निमित्तसे दुसरे नहीं जानसके इस प्रकारसे प्रवेश करना, मिष्ट पदार्थ खानको मिलने पर मेरेका विरस अन्न खानेको मिला ऐसा कहना. रोगी मुनिका किंवा आचार्यका यावृत्य करनेके लिये श्रावकारी कुछ चीज मांगकर उसका स्वयं उपयोग करना. ऐसे दोपाकी आलोचना करनी चाहिये.
स्वममें अयोग्य पदार्थका सेवन होना उसको 'सुमिण' कहते हैं. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाषके आश्रयस जो विचार हुए हो उनका अन्यथा कथन करना उसको 'पलिकुंचन' कहते हैं, जैसे सचित्त पदा