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मूलाराधना
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दोषान्न प्रांजलीभूय भाषते यथशेषतः ॥
न कुर्वन्ति तदा शुद्धिं प्रायश्चित्तविचक्षणाः ।। ६४२ ।।
विजयोदया - डिसेणातिचारे प्रतिसेवनानिमित्तानती वाराम् । तत्र सेवा चतुविधा उपक्षेत्रका भावि कल्पेन द्रव्यसेवा त्रिःप्रकाश सत्रित्तमचि मिश्रमिति द्रव्यस्य त्रिविधत्वात् । चित्तं ज्ञानं तथा च प्रयोगः- वित्तमाजगतले जमिति यद्वा निशब्देनाभिधानं मह चिंतनात्मना वर्तते इति सवितं जीवशरीरत्वेनावस्थितं पुत्रलद्रव्यं न विद्यते चित्तं आत्मा तदवि मिश्रा सचित्तावित्तपुखसंहतिः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः जीवपरिगृहीताः सनिभशब्देनोच्यते । अचिनं जीवन परित्यक्तं शरीरं तयोरुपादानं क्षेत्रादिप्रतिसेवना योज्या जदि णो संपदि न कथयेयदि । जहाक वथाक्रमं । स सर्वान् स्थूलान्सू श्रमश्यातिवान् | या करंति न कुर्वन्ति । तदो ततः । तस्स सोधि तस्य शुद्धि | आगमवद्दारिणो आगमानुसारेण व्यपहरतः ॥
एत्थ दु उज्जुगभावा ववहरिद्रव्त्रा भवति ते पुरिसा ॥
संका परिहरिदा सो से पहाहि जहि त्रिसुद्धा || ६२० ||
इति वचनात् सर्वमविचार निषेश्यत एव ऋजुता, तस्यैव प्रायश्चित्तदानं । यथावदोषानालोचने प्रायश्चित्तप्रयोगाभावं भावयति -
मूलारा – पडिलेषणादिचारे द्रव्यादिचतुष्टयविराधनानिमित्तानतिचारान् । या उंटेन कथयति ।।
अर्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके शाश्रयसे उत्पन्न हुए दोषों को प्रतिसेवना कहते हैं. इस सेवनाके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विकल्पोंसे चार भेद हैं. द्रव्यसेवाके तीन प्रकार है. सचित्त द्रव्यसेवा, अचित द्रव्यसेवा, और मिश्रद्रव्यसेवा. चित्त शब्दका अर्थ ज्ञान है. 'चित्तमात्र जगतत्वं ' अर्थात् ज्ञानमात्र जगत्का तत्व है. यहां ज्ञान आत्मासे कथंचिद अभिन्न हैं. अथवा आत्मामें रहनेसे आत्मा को भी ज्ञान कहते हैं. इस आ माके साथ जो पुद्गल पदार्थ रहता है उसको सचिन कहते हैं, अर्थात् जीवका शरीर बनकर जो पुगल रहता है। उसको सचित कहते हैं, जिस पुइलमें आत्मा रहता नहीं है उसको अचित्त कहते हैं. सचिन और अचित्त पुगके एकरूप हुए समुदायको सचिचाचित्त पुगल कहते हैं. अधिके द्वारा स्वीकारे हुए पृथ्वी, हवा, पानी, अभि वनस्पतिको सचित्र कहते हैं. जीवके छोटे हुए शररिको अचित्त कहते हैं, क्षेत्रादिनिमित्तसे वो जो अपराध होते
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