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.पूलाराधना
आचा
इसी संमारमें जिसको लोक सुख यह नाम देने हैं, वास्तविक वह मुख हे ही नहीं. वह केवल पूर्वकाल में उत्पन्न हुए दुःखाको दूर करनका इलाज मात्र है. प्रथमतः जो दुःख उत्पन्न होता है उसके इलाजको ही सुख कहते हैं. यदि प्रथम दुःख नहीं हुआ तो सुख की कल्पना भी उत्पन्न नहीं होगी।
तृष्णाका शमन करनेकेलिये मनुष्य पानी पीता हैं. और भूख की बेदना नष्ट करनेकालये भोजन करता है.
जल, हवा और सूर्यसंतापका निवारण करनेके लिये लोक घरका, गुबका आच्छादन करनेके लिये वस्त्रका, और निद्राका श्रम दूर करनेकलिये शुध्याका आश्रय करते हुए देखे जाते हैं.
का अमर करने के लिये घोडा, गाडी वगैरह उपाय है. और श्रमसे उत्पन्न हए स्वेदको हटानेका जलस्नान करना यह उपाय है. अथवा एकस्थान में स्वस्थ बैठना यह श्रम दूर करने का उपाय है. दुर्गधका नाश करने के लिये सुगंधि पदार्थोंका सेवन करना यह उपाय माना जाता है. शरीरका कुरूपता दूर करने के लिये अलंका. रोको धारण करना यह उपाय है. अरतिको हटाने के लिये कलाओंका अभ्यास करना यह सर्व प्रनिकाररूप होनसे इसको ही लोक मुख समझते है. जैसे रोगसे पीडित मनुष्य रोगजन्य दुःखका प्रतिकार करनेकालये औषध ग्रहण करता है. देवोंके और मनुष्योंके भोग जिनको चे सुख रूप समझते हैं वे सब दुःखका प्रतिकार करनेमें केवल निमित्तमात्र ही हैं. पित्तप्रकोपसे जिसके सर्व अंगमें दाह हो रहा है वह मनुष्य शीतपदार्थोंका सेवन करता है उनको यदि वह अज्ञानी भोग यह नाम देगा तो वह अनादिक पदा)को भी भोग नाम देगा.
इस जगत में पानी बगरह पदार्थ सर्वथा सुख ही देते हैं ऐसी कल्पना करना भी भूलसे खाली नहीं है. इसलिये वे पदार्थ दुःखका प्रतीकार करनेवाले है इतना ही समझना चाहिय. उसमें भांगता करना योग्य नहीं हैं, जो अन्न भूखसे पीडित मनुष्यको सुखका कारण होता है वहीं वृशमनष्य को विषसमान हो जाना हैं. उ. तासे पीडित हुआ मनुष्य जिन चीजोंको चाहता है ये चीज शीतकाल में दुःखदायक होती है. इस जीयको चक्रवर्ती के सुखसे दृप्ति नहीं होती है. चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नके प्रभावसे देव मनुष्य और विद्याधरोको जीतते हैं, उनके पास क्षयरहित नउ निधि रहते हैं. वे चौदह रत्नोंके स्वामी होकर दस प्रकार के भोगोंका अनुभव लेते हैं तो भी उनसे उनका मन तृप्त होता नहीं.
देव भी देवांगनाओंसे प्राप्त होनेवाले विषयसुखसे तृप्त होते नहीं है. देवोंका आयुष्य अनेक सागरोका
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