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मूलाराधना
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चार्यशांतिमयः । इत्थमेव श्री चंद्रमुनिकृत निबंधे व्याख्यानात् । किदिकम्मं वेदनां । अंजलिकदो मुकुलीकृतांजलिः चायगवसद्दं वाचकवृपर्भ आचार्यप्रधानं । इयं इदं वक्ष्यमाणं वेत्ति अभीति |
गुरुकुल में आपना आत्मसमर्पण करना यह उपसंपा शब्दका अभिप्राय है. अतः इस उपसंपा समाचारका क्रम आचार्य दिखाते हैं
अर्थ- मन, वचन और शरीर के द्वारा सर्व सामायिकादि छह आवश्यक कर्म जिसमें पूर्णताको प्राप्त हुए हैं ऐसा कृतिकर्म कर अर्थात् वंदना करके विनयसे हाथ जोडकर श्रेष्ठ आचार्य को क्षपक आगे लिखे हुए सूत्रके अनुसार विज्ञप्ति करता है --
सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रांतक्रमण, प्रत्याख्यान, और कार्यात्सगँ ये छह आवश्यक क्रियाएं मनोयोग, वचनयोग और काययोग की निर्मल करके करने चाहिये. अर्थात् मत्येक आवश्यक योग संघ तीन तीन भेद होते हैं. मनके द्वारा सर्व योगका त्याग करना, सर्व साधयोगोंका में त्याग करता हूं ऐसा घनसे उच्चार करना, शरीरसे सर्व सावध क्रियाओंका त्याग करना ऐसे सामायिक के तीन भेद होते हैं, मनसे चोवीस वीक के गुणों का स्मरण करना, बचनसे 'लोयस्सुज्जोययरे ' इत्यादि लोकोंमें कही हुई तीर्थकर स्तुति बोलना, ललाटपर हाथ जोडकर जिनेंद्र भगवान को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विधति स्तुती तीन भेद होते हैं.
वंदना करने योग्य गुरुक गुणांका स्मरण करना यह मनोवंदना है. पचनों द्वारा उनके गुणांका सहस्त्र प्रगट करना यह वचनवंदना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवंदना है. किये हुए अतिचाका मनसे त्याग करना यह मनःप्रतिक्रमण है हाय हाय मैने पापकार्य किया है ऐसा सनसे विचार करना यह मनःप्रतिक्रमण हैं, प्रतिक्रमण सूत्रों का उच्चार करना यह वाक्य प्रतिक्रमण है. शरीर के द्वारा दुष्कृत्यों का आचरण न करना यह कायकृत प्रतिक्रमण है.
मनसे मैं अतिचारोंको भविष्यकाल नहीं करूंगा ऐसा विचार करना यह मनः प्रत्याख्यान है. वचनये अतिचार में भविष्य में नहीं करूंगा ऐसा बोलना अर्थात् भविष्यकालमें मैं अतिचार नहीं करूंगा ऐसा कहना यह वचनप्रत्याख्यान है, शरीरके द्वारा भविष्यकाल में अतिचार नहीं करना यह कायप्रत्याख्यान है. यह शरीर मेरा नहीं हैं ऐसा मनमें विचार करना अर्थात् शरीरपर मनसे प्रेम दूर करना यह मनः कायोत्सर्ग है. मैं शरीरका स्थाय
आश्वासः
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