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मृलाराधना
आश्वासः
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लाभार्थ उत कर्मनिर्जरार्थमिति विज्ञाय | उच्छाई प्रायश्चित्तं प्रत्युद्योगं । संघदणं शरीरबलं । परियाय प्रव्रज्याकाल परिमाणं । आगम अल्पं श्रुनमस्य बहु वति । पुरिस वैराग्यपरो न वेति च विज्ञाय ।
दुसगेने आलोचना कर कहे हुए अपराधोंका प्रायश्चित्त देनेका व्यवहारचान् आचार्यका क्रम दो गाथाओम आचार्य कहत
अर्थ-द्रव्य सचित्तद्रव्य, अचित्त द्रन्य, और मिश्र द्रव्य एसे तीन भेद हैं. पृथिवी, पानी, अग्नि, हवा, प्रत्येक काय बनस्पति, अनंत काय बनम्पति और सजीव इन जीवोंको सचित्त द्रव्य कहते हैं. तृणका संस्तर, फलक वगैरे पदार्थ अचित्त द्रव्य है. जिसमें जीव उत्पन्न हुए है ऐसे उपकरणोंको मिश्र द्रव्य कहते हैं. ऐसे तीन प्रकारके द्रव्योंका सेवन करनेसे दोष लगते हैं,
वर्षाकालमें आधा कोस, आधायोजन मार्ग मुनि जा सकते हैं परंतु उससे अधिक वे गमन कर तो वह मायश्चित्ताई होता है यह क्षेत्र प्रतिसेवा है, जहां जाना निषिद्ध माना है ऐसे स्थानमें जाना, विरुद्धराज्यमें जाना, जहां रम्ना टूट गया है ऐसे प्रदेशमें गमन करना, यह क्षेत्रमतिसेवना है. उन्मार्ग से जाना, अंत:पुरमें प्रवेश करना, जहां प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृहके जमीनमें प्रवेश करना यह क्षेत्रप्रतिसेवना है. (ततो रक्षणीयागमनं, तस्मादों यदानिक्रान्त ) इन पदोंका अर्थ लगता नहीं.
मामायिक प्रतिक्रमणादिक छह आवश्यकोंका जो काल नियत है उसको उल्लंघकर अन्यकालमें सामायिकादिक करना, वर्षाकालयोगका उल्लंघन करना यह कालप्रतिसवना है, दर्प, उन्मत्तता, अमावधानता, साइस, भय इत्यादिरूप परिणामों में प्रवृत्त होना भावप्रतिसेवना कहते हैं. इस प्रकार अपराधके कारण पदाधोंका स्वरूप जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिये. प्रायश्चिन देनेवालोंको आहारके पदार्थोका भी ज्ञान होना आवश्यक है. कोई आहार रसबहुल रहता है. अर्थात् उसमें रस का प्राधान्य रहता है. कोई आहार धान्यप्रचुर रहता है. किसी आहारमें शाककी मुरुगना होती है और किर्या में लापसी और शाककी मुग्य्पता होती है. कोई आहार पेयपदार्थरूप गतला रहना है. ये आहारक पदार्थीका भी पायत्रित्तदानाको ज्ञान होना चाहिये.
प्रायश्रित करनवालोंका और दनेवालोंको अनूप, जांगल और साधारण इन प्रदेशोंको ज्ञान होना चाहिये. जिस देश में पानीकी विपुलता है उसको अनूपदेश कहते हैं, बन पर्वतादिक जिसमें है और कम वृष्टि होती है उस