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मुलाराधना
आश्वासः
प्रत्याख्येयप्रत्याख्याने, शारीरममतानिरासे था. परिणतिर्भावसामायिकादिकं । तत्र प्रवृसो न वेति परीक्षा । चक्षुषा पूर्वमिदं । प्रतिलेखन योग्यं न वेति किं पश्यनि नशा उपकरणन भृदुना लघुना माजनं किं करोति न करोति वा । अथवा वरिन । प्रमार्जयति, भरपीइयति, दुरायनसायालयात प्रामा जगेन विरोधिनो जीयामिश्रयसि । आहाराभिमुखान, आहारमारिणो गृहीतांडककात, स्वनियामदारमान, नाममाञ्जयभिम वेति परीक्षा । यचने परीक्षा--पाय यचा, परनिंदायप्रसाद, आरंभरग्रियोः प्रवर्तकं, मिथ्यात्वसंपादकं, मिथ्याज्ञानकारि, व्यतीकं, गृहस्थानां वचो वा बदति न बनि । यतो यहादेयं यशा यन्त्र निक्षिपति तदुभयपमार्जनपूर्वकं किं गृहाति निक्षिपति वा नेति परीक्षा । काला विशुद्धि कृत्या पठति किवान, अथवा इमै ग्रंथं पठति, कथं वास्थार्थ व्याचष्टे । स्वनियासदेशाहरे इस्तमात्रादिपरिमाणे स्थंडिले, निर्जतथे निश्छिद्रे, समे अगिरोगे पनिजामनोविमरीरमलं त्यजति उतातो विपरीते इति विद्वारे परीक्षा । भिक्षामहणे परीक्षा नाम भ्रामयी यां कांचितिक्षा गृहाति लब्धामुत नवकोटिपरिशुद्धामिति ।
क क परीशंते इत्यवाह___ मूलारा – आवास यंटाणा दिसु आवश्यये.गु सामायिकादिपु, स्थान स्थितिरावश्यकपरिणतिकाल इत्यर्थः । आदिशब्देन दुःणदं जहाजादै बारमवत्तमेव य । चदुस्सिरं तिसुद्धमित्यादिकाः क्रिया गृहीताः । पडिलेहणा चक्षुःपिंडादिना प्राणिनिरूपणप्रमार्जनं । बिहारे गमने ॥
अर्थ-संगर और निजराकी इच्छा रखनेवाले मुनिके द्वारा किये जानेवाले. सामायिकादि कर्तव्योंको आवश्यक कहते हैं. अर्थात् सामायिफादि छह आवश्यकों का पालन आगत मुनि योग्य समयपर करता है या नहीं इसकी परीक्षा वास्तव्य मुनि करते हैं. दो नमस्कार, बारा आचर्त, प्रत्येक दिशाके तरफ एक नमस्कार ऐसे चार नमस्कार, मन, वचन और कायकी शुद्धिसे करना इत्यादिक क्रियाओं का पालन यह मुनि करता है या नहीं इसका यूक्ष्म । अबलोकन वे करते हैं, नेत्रोंसे उपकरणोंका शोधन करना, सोध करके उपकरण उठाना, रखना, बोलना, स्वाध्याय करना, विहार करना, आहार ग्रहण करना इत्यादि कार्यो में आगते मुनीकी परिक्षा ली जाती है. यह मुनि सामायिकादि कर्तव्य करता है क्या? योग्य कालमें करना है या नहीं ? केवल ,व्यमामायिसादिकोंमें यह प्रवृत्त होता है या भावसामायिकादिकोमें इंगकी प्रवृत्ति है ? यचनसे सामायिकादिकका पाठ घोलना और शरीरक सामायिकादिकोंकी क्रिया करना यह द्रव्यमामायिक समझना चाहिये. अशुभ योगका त्याग करना, तीर्थकरोंके गुणोंका
स्मरण करना, आचार्य, उपाध्याय गैरह पूज्य मुनिओके गुणोंका स्मरण करना, अपने ब्रतमें लगे हुए अतिचा| रोंकी निंदा व गहीं करना, त्याज्य पदार्थाका त्याग करना, शरीरके उपरका स्नेह छोडना इत्यादिकों में जो तत्परता
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