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इलारावना
आश्वासः
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अथवा मतिमंद होनेसे उनके उपदेशका रहस्य नहीं जाननेसे उनमें उसका प्रेम उत्पन्न नहीं होता है। - प्रेमके बिना जनमें सुननेकी उत्कंठा नहीं होती है.
इस विषयमें आचार्य ऐसा करने है
मोक्षप्राप्लेिके उपायका अर्थात् रत्नत्रयका उपदेश देनेवाले आचार्य के वसतिकामें जाकर भी जो प्रमादसे अन्य लोगोंकी बातें सुननेमें अपने चित्तको एकाग्र करता है वह मूर्ख मनुष्य सरोवरके पास जाकर भी कीच- | । हमें फंसे हुए मनुष्य के समान समझना चाहिये.
यद्यापि सत्पुरुषके पचन सुनने पर भी उसका अभिप्राय ध्यान में रखना दुर्लभ है. क्योंकि जीवादि वस्तुओंका म्वरूप सूक्ष्म होनेसे और वह पूर्वकालमें कभी सुनने में नहीं आनेसे उसका अभिप्राय मनमें समझना कठिन है. यद्यपि ज्ञानाबरणीय कर्मका क्षयोपशम विशेष होनस बुद्धिजीवादियोंका स्थल जानेगी, धर्गका बम्प जागी तथापि जाने हुए जीवादिक स्वरूपमें और धर्मस्वरूपमें श्रद्धा उत्पन्न होना दुलंग ई.
यह श्रीजिनेश्वरका धर्म हिंसात्मक है. यह सत्यके आधार पर है अर्थात् सत्यपना इसकी नीय है. पर. धन हरण न करना यह इसका स्वरूप है. नंउ प्रकारसे मचर्य द्वारा इसका संरक्षण किया जाता है, संपूर्ण परिनहाँपरसे ममत्व दूर करना यह इसका ध्येय है. विनय इसका मूल है. इस धर्मके आचरण मनुष्यको सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होती है. क्षमा मृदुपना अर्थात् अभिमानका त्याग, निष्कपटपना, संतोष इत्यादि गुण इस धर्मके अलंकार हैं, यह नरकका मार्ग बंद करने के लिये वजार्गला के समान है. पशुगतिरूपीबेलीको काटनेके लिये यह जिनधर्म कुल्हाडीके समान है. दुःखरूपी पर्वतके शिखरोंको विध्वस्त करने के लिये यह धर्म कठोर वनके समान है. मोहरूपी महावृक्षको समुल उपाडनेके लिये यह धर्म जोरदार हवाके समान है. वृद्धावस्थारूप बनकी अग्नीकी ज्वालायें युझानेके लिये यह वर्षाकालीन बृष्टि करनेवाला मेघ है, मरणरूप हरिणका घात करनेक लिये यह धर्म वाघ तुल्य है, भयंकर रोगसपोंको यह गरुडके समान है. संपत्तिरूपी गंगानदीकी उत्पत्तिके लिये यह धर्म हिमपर्वत है. अगाध शोकरूपी कीचडको यह सेतू है. यह जैनधर्म सौदर्यका पिता है. ऐश्वयेरुप रत्नाकी अह खान है. कुयोनिवन में भ्रमण करनेवाले प्राणिऑको यह धर्म मुक्तिनगरको लेजानेवाला है. ऐसे जिनधर्मके ऊपर श्रद्धा होना अतिशय दुर्लभ है.
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