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३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ जावंतु केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं।
ते वजिंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो॥ १८०॥ अनुवाद-"परिग्रह रागद्वेष की उदीरणा करनेवाला होता है, उसे छोड़ कर निस्संग हुआ मुनि रागद्वेष को निश्चय से जीतता है।"
जह इंधणेहिं अग्गी वड्डइ विज्झाइ इंधणेहि विणा।
गंथेहिं तह कसाओ वड्डइ विज्झाई तेहिं विणा॥ १९०७॥ अनुवाद-"जैसे ईंधन से आग बढ़ती है और ईंधन के बिना बुझ जाती है, वैसे ही परिग्रह से कषाय बढ़ती है और परिग्रह के अभाव में मन्द हो जाती है।"
जह पत्थरो पडतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंक।
खोभेइ पसण्णमवि कसायं जीवस्स तह गंथो॥ १९०८॥ अनुवाद-"जैसे तालाब में पत्थर फेंकने से नीचे बैठी हुई कीचड़ ऊपर आ जाती है, वैसे ही परिग्रह से जीव की दबी हुई कषाय उदय में आ जाती है।" ५.७. परिग्रही में लेश्या की विशुद्धि असम्भव
__भगवती-आराधना की नीचे दी हुई गाथा में बतलाया गया है कि जैसे बाहर के तुष (छिलका) रहते हुए चावल की अभ्यन्तर शुद्धि सम्भव नहीं है, वैसे ही परिग्रही जीव में लेश्या की विशुद्धि असम्भव है
जध तंडुलस्स कोण्डयसोधी सतुसस्स तीरदि ण कादं।
तह जीवस्स ण सक्का लिस्सासोधी ससंगस्स॥ १९११॥ ५.८. वस्त्रादिपरिग्रह से हिंसा -
वस्त्रादिपरिग्रह से जीवों की हिंसा होती है, इसका वर्णन भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथाओं में है
चेलादीया संगा संसजति विविहेहिं जंतूहिं।
आगंतुगा वि जंतू हवंत गंथेसु सण्णिहिदा॥ ११५२॥ अनुवाद-"वस्त्रादिपरिग्रह में नाना प्रकार के सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। बाहर से भी आकर लूं,चींटी, खटमल वगैरह बस जाते हैं। धान्य में कीड़े हो जाते हैं। गुड़ आदि संचय करने पर उसमें भी जीव पैदा हो जाते हैं।" (वि.टी.)।
आदाणे णिक्खेवे सरेमणे चावि तेसि गंथाणं। उक्कस्सणे वेक्कसणे फालण-पप्फोडणे चेव॥ ११५३॥
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