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अ०१८/प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५७
लेख रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय
लेखक : पं० जुगलकिशोर मुख्तार
प्रो० हीरालाल जी जैन का नया मत'र. क.' का 'क्षुत्पिपासा'-पद्यगत 'दोष' शब्द आ. मी.-कार के मतानुरूप नहीं
"रत्नकरण्ड श्रावकाचार के कर्तृत्व-विषय की वर्तमान चर्चा को उठे हुए चार वर्ष हो चुके। प्रोफेसर हीरालाल जी, एम० ए० ने 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्ध में इसे उठाया था, जो जनवरी, सन् १९४४ में होनेवाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलन के १२ वें अधिवेशन पर बनारस में पढ़ा गया था। उस निबन्ध में प्रो० सा० ने अनेक प्रस्तुत प्रमाणों से पुष्ट होती हुई प्रचलित मान्यता के विरुद्ध अपने नये मत की घोषणा करते हुए यह बतलाया था कि 'रत्नकरण्ड उन्हीं ग्रन्थकार (स्वामी समन्तभद्र) की रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने आप्तमीमांसा लिखी थी, क्योंकि उसके 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य में दोष का जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता।' साथ ही यह भी सुझाया था कि इस ग्रन्थ का कर्ता रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि का गुरु भी हो सकता है। इसी घोषणा के प्रतिवादरूप में न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया ने जुलाई सन् १९४४ में 'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?' नामक एक लेख लिखकर अनेकान्त में इस चर्चा का प्रारम्भ किया था और तब से यह चर्चा दोनों विद्वानों के उत्तर-प्रत्युत्तररूप में बराबर चली आ रही है। कोठिया जी ने अपनी लेखमाला का उपसंहार अनेकान्त की ८वें वर्ष की किरण १०११ में किया है और प्रोफेसर साहब अपनी लेखमाला का उपसंहार ९वें वर्ष की पहली किरण में प्रकाशित 'रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तत्व' लेख में कर रहे हैं। दोनों ही पक्ष के लेखों में यद्यपि कहीं-कहीं कछ पिष्टपेषण तथा खींचतान से भी काम लिया गया है और एक-दूसरे के प्रति आक्षेपपरक भाषा का भी प्रयोग हुआ है, जिससे कुछ कटुता को अवसर मिला। यह सब यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा रहता। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानों ने प्रकृत विषय को सुलझाने में काफी दिलचस्पी से काम लिया है और उनके अन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक प्रयत्न के फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकों के सामने आई हैं। अच्छ होता यदि प्रोफेसर साहब न्यायाचार्य जी के पिछले लेख की नवोद्भावित-युक्तियों का उत्तर देते हुए अपनी लेखमाला का उपसंहार करते, जिससे पाठकों को यह जानने का अवसर
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