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अ०१८/प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८३ के किसी आचार्य से अथवा आप्तमीमांसाकार से भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र से है। दोनों ग्रन्थों के कर्ता एक ही समन्तभद्र नहीं हो सकते अथवा यों कहिये कि वादिराजसम्मत नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों ग्रन्थों के उल्लेख-सम्बन्धी दोनों पद्यों के मध्य में 'अचिन्त्यमहिमा देवः' नाम का एक पद्य पड़ा हुआ है, जिसके देव शब्द का अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपाद से है और जो उनके शब्दशास्त्र (जैनेन्द्र) की सूचना को साथ में लिए हुए है।' जिन पद्यों पर से इस युक्तिवाद अथवा रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा के एककर्तृत्व पर आपत्ति का जन्म हुआ है, वे इस प्रकार हैं
स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम्। देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते॥ १७॥ अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा। शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः॥ १८॥ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः।
अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः॥ १९॥ "इन पद्यों में से जिन प्रथम और तृतीय पद्यों में ग्रन्थों का नामोल्लेख है, उनका विषय स्पष्ट है और जिसमें किसी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, उस द्वितीय पद्य का विषय अस्पष्ट है, इस बात को प्रोफेसर साहब ने स्वयं स्वीकार किया है। और इसीलिए द्वितीय पद्य के आशय तथा अर्थ के विषय में विवाद है। एक उसे स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करते हैं, तो दूसरे देवनन्दी पूज्यपाद के साथ। यह पद्य यदि क्रम में तीसरा हो और तीसरा दूसरे के स्थान पर हो, और ऐसा होना लेखकों की कृपा से कुछ भी असम्भव या अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवाद के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता, तब देवागम (आप्तमीमांसा) और रत्नकरण्ड दोनों निर्विवादरूप से प्रचलित मान्यता के अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित हो जाते हैं और शेष पद्य का सम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद और उनके शब्दशास्त्र से लगाया जा सकता है। चूँकि उक्त पार्श्वनाथचरित-सम्बन्धी प्राचीन प्रतियों की खोज अभी तक नहीं हो पाई है, जिससे पद्यों की क्रमभिन्नता का पता चलता और जिसकी कितनी ही सम्भावना जान पड़ती है, अत: उपलब्ध क्रम को लेकर ही इन पद्यों के प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थ पर विचार किया जाता है
"पद्यों के उपलब्ध क्रम पर से दो बातें फलित होती हैं-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्र की स्तुति को लिये हुए हैं और उनमें उनकी तीन कृतियों का उल्लेख है, और दूसरी यह कि तीनों पद्यों में क्रमशः तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियों का उल्लेख है। इन दोनों में से कोई एक बात ही ग्रन्थकार के द्वारा
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