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अ०२२/प्र०१
स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२३ __पउमचरिउ में कहा गया है कि महामुनि के उपदेश से धनदत्त ने मिथ्यात्व छोड़कर अणुव्रत ग्रहण कर लिये तथा पद्मरुचि और वृषभध्वज के विषय में कहा गया है कि वे दोनों सम्यग्दर्शन से युक्त थे और श्रावकव्रतों को धारण किये हुए थे। इसी प्रकार जब जिनधर्मानुयायी श्रीभूति से जिनवचनों से विमुख राजा स्वयंभू उसकी वेदवती नामक कन्या को माँगता है, तब श्रीभूति कहता है कि मैं अपनी सोने जैसी बेटी मिथ्यादृष्टि को कैसे दे दूँ?" इन वचनों से स्पष्ट होता है कि पउमचरिउ के कर्ता स्वयम्भू जिनशासन को न माननेवाले को मिथ्यादृष्टि मानते हैं। और मिथ्यादृष्टि मोक्ष का अधिकारी नहीं है, इससे सिद्ध है कि वे परशासन से मुक्ति के समर्थक नहीं हैं।
एक अन्य स्थल पर लक्ष्मण के पुत्र अपने पिता से कहते हैं-“हे तात! सुनिये, --- यह संसाररूपी समुद्र आठकर्मरूपी जलचरों से भयंकर है। इसमें दुर्गतियों का सीमाहीन खारा जल भरा हुआ है।---यह मिथ्यावादों के भयंकर तूफान से आन्दोलित है। खोटे शास्त्ररूपी द्वीपों के समूह इसमें विद्यमान हैं। ऐसे अनन्त संसार-समुद्र में हमने मनुष्यजन्म बड़ी कठिनाई से पाया है। अब इस मनुष्यशरीर से हम जिनदीक्षारूपी नाव द्वारा उस अजर-अमर देश को जायेंगे, जहाँ पर यम की छाया नहीं पड़ती।"११
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि लक्ष्मणपुत्र केवल जिनदीक्षा को ही मोक्ष की नौका कहते हैं, शेष मतों को मिथ्यावाद और खोटे शास्त्रों का प्ररूपक बतलाते हैं। इससे भी सिद्ध होता है कि कवि स्वयंभू परशासन से मुक्ति स्वीकार नहीं करते। स्वयंभू ने जिनवचनों के श्रवण में रुचि न रखने वालों को अभव्य और मर्ख भी कहा है। इससे भी उपर्युक्त बात की पुष्टि होती है। अतः स्वयम्भू इस अपेक्षा से भी यापनीय सिद्ध नहीं होते ।
सचेलमुक्ति का प्रतिपादन नहीं __ श्रीमती पटोरिया एवं डॉ. सागरमल जी ने डॉ० एच० सी० भायाणी के इस कथन को उद्धृत किया है कि "यापनीय संग्रन्थ अवस्था तथा परशासन से भी मुक्ति
५. रिसि-वयणे विमुक्क-मिच्छत्तें। लइयइँ अणुवयाइँ धणदत्तें ॥५/८४/८/१॥ पउमचरिउ। ६. विण्णि व जण सम्मत्त-णिउत्ता। सावय-वय-भर-धुर-संजुत्ता॥५/८४/१२/७॥ पउमचरिउ। ७.. सम्भु वि सिय-सयण-विमुक्कउ। जिणवर-वयण-परम्मुहउ॥५/८४/१७/९॥ पउमचरिउ। ८. सिरिभूइ पजम्पिउ कणय-वण्ण। किह मिच्छादिट्ठिहं देमि कण्ण ॥५/८४/१६/६॥ पउमचरिउ। ९. मिच्छत्त-गरुय वायन्त वाएँ। ५/८६/१०/६॥ पउमचरिउ। १०. अलियागम-सयल-कुदीव णियरें ॥ ५/८६/१०/८॥ पउमचरिउ। ११. जिण-पावज-तरण्डऍण, जाहुँ देसु जहिं जणु अजरामरु॥ ५/८६/१०/११॥ पउमचरिउ।
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