Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 834
________________ ७७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २४ से निर्दिष्ट करते हुए 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ (पृ.१६०-१६५) में लिखते हैं कि वह उन्हें निम्नलिखित कारणों से यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है १. इसकी विषयवस्तु का लगभग ८० प्रतिशत भाग वही है, जो श्वेताम्बरपरम्परा के आवश्यकसूत्र में है। २. ई० सन् ९८० के चालुक्यवंश के सौदत्ति-अभिलेख में यापनीयसंघ के कण्डूर्गण के प्रभाचन्द्र का उल्लेख है। (जै.शि.सं./मा.च/ भा.२/ले.क्र.१६०)। इस ग्रन्थ के टीकाकार संभवतः वही प्रभाचन्द्र हैं। टीकाकार का यापनीय होना सिद्ध करता है कि यह ग्रन्थ यापनीयपरम्परा का है। ३. इसमें रात्रिभोजनविरमण सर्वत्र छठे व्रत या अणुव्रत के रूप में उल्लिखित है। यह मान्यता श्वेताम्बरों में और भगवती-आराधना आदि यापनीयग्रन्थों में मिलती ४. इसमें 'एऊणविसाए णाहाज्झयणेसु' (एकोनविंशतिनाथाध्ययनेषु) कहकर दो गाथाओं में ज्ञातसूत्र के १९ अध्ययनों का विवरण दिया गया है। (प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी/ पृ.५१)। ये दोनों गाथाएँ एवं इनमें उल्लिखित ज्ञाता के उन्नीस अध्ययन आज भी श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य 'ज्ञाताधर्मकथा' में मिलते हैं। श्वेताम्बर-आगमों की विषयवस्तु का ग्रहण यापनीयग्रन्थ में ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। ५. इस प्रतिक्रमणसूत्र (पृ.५६) में 'तेवीसाए सुद्दयडज्झाणेसु' (सूत्रकृतं द्वितीयमङ्गं, तस्याध्ययनानि त्रयोविंशतिः) कहकर सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों का उल्लेख तीन गाथाओं में हुआ है। इससे भी प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी का यापनीयग्रन्थ होना सिद्ध होता है। ६. इसमें दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्याय की प्रथम गाथा उल्लिखित है। यह श्वेताम्बर-यापनीय दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। आश्चर्य है कि डॉक्टर सा० को इन कारणों से प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होती है। वास्तविकता यह है कि इनमें से एक भी हेतु प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि उसमें ऐसे सिद्धान्तों को मान्यता दी गयी है, जो यापनीयमत के मौलिक सिद्धान्तों-आपवादिक सचेल मुनिलिंग अर्थात् सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, और परशासनमुक्ति के विरुद्ध हैं। यथा १. ग्रन्थ में मुनियों के द्वारा अचेलत्व, केशलुंच, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन (खड़े होकर आहार करना), पाणितलभोजन आदि मूलगुणों के ग्रहण किये Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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