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७७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२४ छेदशास्त्र इस ग्रन्थ के विषय में 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने लिखा है-"जहाँ तक ग्रन्थ की विषयवस्तु का प्रश्न है, वह मुख्यतः 'छेदपिण्ड' पर ही आधारित प्रतीत होती है। इसमें भी २८ मूलगुणों के भंग (उल्लंघन) को आधार बनाकर प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। प्रायश्चित्तों का स्वरूप और उनके नाम वही हैं, जो हमें छेदपिण्ड में मिलते हैं। इसकी अनेक गाथाएँ भी छेदपिण्ड में मिलती हैं। यदि इसे छेदपिण्ड का ही एक संक्षिप्त रूप कहा जाय, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की परम्परा का निश्चय करना कठिन है, क्योंकि इसमें ऐसा कोई भी स्पष्ट संकेत उपलब्ध नहीं है, जिससे इसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ कहा जा सके। किन्तु यदि छेदपिण्ड यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है और उसी के आधार पर इस छेदशास्त्र की रचना हुई है, तो यह कहा जा सकता है कि यह भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ रहा होगा।" (जै. ध. या. स./ पृ. १५३-१५४)।
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि डॉक्टर सा० ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि 'छेदशास्त्र' में ऐसा कोई भी स्पष्ट संकेत नहीं है, जिससे इसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ कहा जा सके। फिर भी उन्होंने इसे मात्र इस कारण यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ मान लिया कि इसकी रचना छेदपिण्ड के आधार पर हुई है और 'छेदपिण्ड' उनके अनुसार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। किन्तु यह ऊपर सिद्ध हो चुका है कि 'छेदपिण्ड' यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, अतः उस पर आधारित होने से छेदशास्त्र भी दिगम्बरपरम्परा का है, यह स्वतः सिद्ध है। इसके अतिरिक्त इसमें मुनियों के वे ही २८ मूलगुण ११ बतलाये गये हैं, जो दिगम्बर ग्रन्थ 'प्रवचनसार,' 'मूलाचार' और 'छेदपिण्ड' में वर्णित हैं तथा 'छेदपिण्ड' के ही समान देशयतियों (देशव्रतियों) को उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य श्रेणियों में विभाजित कर मुनियों के लिए विहित प्रायश्चित्त से उत्तरोत्तर आधे-आधे प्रायश्चित्त का भागी बतलाया गया है। इसका वर्णन करनेवाली गाथा 'छेदपिण्ड' के प्रकरण में उद्धृत की जा चुकी हैं। सार यह कि 'छेदशास्त्र' में मुनियों के लिए २८ मूलगुणों का विधान होना इस बात को स्पष्ट प्रमाण है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है।
'छेदशास्त्र' में आचेलक्य मूलगुण को भंग करने पर निम्नलिखित प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है
११. छेदशास्त्र / गाथा ८-५४ (पृ.७७-९३), (प्रायश्चित्तसंग्रहः/ माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला/
आषाढ़, विक्रम सं. १९७८ में संगृहीत)।
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