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७८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २४ मभ्युत्तिष्ठामि), सचेलं (चेलं वस्त्रं तेन सहितं सावरणं स्वरूपं व्युत्सृजामि), अचेलं (तद्विपरीतमचेलं निरावरणं स्वरूपमभ्युत्तिष्ठामि)।" (पृ. ११५)
अनुवाद-"आत्मा के सग्रन्थ (बाह्य और आम्यन्तर परिग्रहसहित) स्वरूप का परित्याग करता हूँ, उसके विपरीत निर्गन्थस्वरूप को ग्रहण करता हूँ। आत्मा के सचेल (वस्त्रसहित) स्वरूप को छोड़ता हूँ, उसके विपरीत अचेल स्वरूप को ग्रहण करता
इस प्रतिक्रमणपाठ में सचेलत्व के परित्याग और अचेलत्व के ग्रहण का संकल्प करना मुनि के लिए आवश्यक बतलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में मुनि के लिए आपवादिक सचेललिंग का विधान नहीं है, अतः यह यापनीयग्रन्थ नहीं है।
४. पूर्व क्रमांक २ पर उद्धृत 'पंचमे महव्वते हिरण्णं---' इत्यादि अपरिग्रह महाव्रत के लक्षण में सूती, ऊनी, रेशमी आदि सभी प्रकार के वस्त्रों को परिग्रह कहा गया है। निम्नलिखित उद्धरण में भी वस्त्र (कुप्य)१७ और भाण्ड को ग्रन्थ (परिग्रह) संज्ञा दी गयी है
"अथवा क्षेत्ररत्नरूप्यसुवर्णधनधान्यदासीदास-कुप्यभाण्डलक्षण-बाह्यग्रन्थविषयो दशप्रकारो मोहः। मिथ्यात्ववेदरागादिलक्षणाभ्यन्तरग्रन्थविषयश्चतुर्दशप्रकारः, पञ्चेन्द्रियदुष्टमनोविषयः षट्प्रकारो मोहः। एतानि त्रिंशन्मोहनीयस्थानानि परित्याज्यानि। प्रमादात्कदाचित् तदपरित्यागे प्रतिक्रमणम्।" (प्रभाचन्द्रकृत टीका / प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी / पृ.६१-६२)। ____ यहाँ वर्णित क्षेत्र, रत्न, रूप्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य (वस्त्र) और भाण्ड (पात्र) इन दस बाह्य ग्रन्थों तथा मिथ्यात्व, वेद, राग आदि चौदह अभ्यन्तर ग्रन्थों से रहित मुनि को निर्ग्रन्थ नाम दिया गया है और कहा गया है कि निर्ग्रन्थलिंग मोक्ष-प्राप्ति का उपाय है
"ग्रन्थाद् बाह्यादभ्यन्तराच्च निष्क्रान्तो निर्ग्रन्थः। तन्निर्ग्रन्थतालक्षणं मोक्षमार्ग मोक्षप्राप्त्युपायभूतं लिङ्गम्।" (प्रभाचन्द्रकृतटीका / प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी / पृ.६५)।
१७. कुप्य = वस्त्र एवं भाण्ड (वर्तन)।
क- "कुप्यं क्षौम-कार्पासक-कौशेय-चन्दनादि।" सर्वार्थसिद्धि/७/२९ । ख-"कुप्यं कार्पासादिकम्।" आचारवृत्ति/मूलाचार/ गा.४०८।। ग- "कुप्यं वस्त्रम्।" विजयोदया टीका/ भगवती-आराधना / गा.१११३। घ- "कुप्यप्रमाणातिक्रम-वर्तनों और वस्त्रों के प्रमाण का अतिक्रमण करना।' पं. सुखलाल
जी संघवी : तत्त्वार्थसूत्र / विवेचन-सहित /७/२४ / पृ. १८८ ।
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