Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 840
________________ ७८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ में ये सब बातें मान्य हैं। अतः श्वेताम्बर-आगमों की गाथाओं या विषय वस्तु से साम्य रखनेवाली दिगम्बरमतानुरूप गाथाओं एवं विषयवस्तु की उपलब्धि से 'प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी' यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। तथापि उसमें उपर्युक्त गाथाएँ या कोई सदृश विषयवस्तु श्वेताम्बर-आगमों से गृहीत नहीं है। ___ एकादश अध्याय (षट्खण्डागम) के तृतीय प्रकरण में स्पष्ट किया जा चुका है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों की कतिपय गाथाओं एवं विषयवस्तु में साम्य इसलिए है कि श्वेताम्बरपरम्परा उसी मूल निर्ग्रन्थपरम्परा से उद्भूत हुई है, जो आगे चलकर दिगम्बरपरम्परा कहलाने लगी। प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में उक्त गाथाएँ एवं विषयवस्तु किसी दिगम्बरग्रन्थ से ही ली गई हैं, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है। धवलाकार वीरसेन स्वामी ने एक छेदसुत्त ग्रन्थ का उल्लेख किया है,१९ वह वर्तमान में अप्राप्य है। संभव है उक्त गाथाएँ एवं विषयवस्तु इसी ग्रन्थ से ग्रहण की गई हों। अतः विषयवस्तुगत उक्त साम्य ग्रन्थ के यापनीय होने का हेतु नहीं है। रात्रिभोजनविरमण को सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, विजयोदयाटीका आदि दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में भी छठे व्रत के रूप में वर्णित किया गया है। (देखिए, अध्याय १४/प्रकरण २/शी.७)। अतः इसे वर्णित करने के कारण प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होती। उपर्युक्त सात हेतु किसी भी ग्रन्थ के दिगम्बरीय होने के असाधारण धर्म हैं। वे प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में उपलब्ध हैं, अतः उसके दिगम्बरग्रन्थ होने में सन्देह के लिए स्थान नहीं हैं। १९. "ण च दव्वित्थीणं णिग्गंथत्तमत्थि, चेलादिपरिच्चाएण विणा तासिं भावणिग्गंथत्ताभावादो, ण च दव्वित्थिणवंसयवेदाणं चेलादिचागो अत्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो।" धवला/ष.खं./ पु.११/४, २, ६, १२/ पृ.११४-११५ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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