Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 863
________________ पाण्डुराङ्गतपस्वी ५९० पातञ्जल योगदर्शन ३७३ पातञ्जलयोगदर्शन-भाष्य (व्यास) ३३२, ३७३, ३७४ पात्रकेसरी स्वामी (पात्रस्वामी) ४९२-४९४, ४९६ पादलिप्त (श्वे० आचार्य) ५१९ पारञ्चिकप्रायश्चित्त ४८१, ७७१ पारसी (समाज) ९१ पार्श्वनाथचरित (वादिराज सूरि) ३७५, ५८७, ५८९, ६०९ पाल्यकीर्ति शाकटायन ६१, २०३, २०५, २०६, २८१, ४१९, ६१७, ६४५, ६७७, ७९०, ७९१ पाषण्ड (मिथ्याधर्म-प्ररूपक) ७७० पी० एल० वैद्य, डॉ० ५०४ पुग्गल-मांस (दशवैकालिक, निशीथचूर्णि) शब्दविशेष-सूची / ८०७ पुरुषशरीर संयम का हेतु २५ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय १४६ पुरूरवा भील (महावीर का पूर्वभव दिग०) ७५९ पुलकादि मुनि ३८७, ३८८ पुष्पदन्त (षट्खण्डागमकार) ७४१ पुष्पदन्ता आर्यिका (मायाचार का परिणाम) ४३ पूज्यपाद (देवनन्दी) ६३,३७०,५०१,५०५ ५१०, ५४०, ५४४, ५४६, ५५६, ५९५, ५९६, ६०४, ६११, ६२६ पूतिगन्धा ७३६ पूतिमुखी दासी ४३ पूर्वभावप्रज्ञापनीय नय ३५८ पृथिवीमती आर्यिका ६४२ पृथुवीकोङ्गणि महाराज (गंगवंशी) १६९ प्रकरणार्यवाचा (बौद्धग्रन्थ) ४९४ प्रकीर्णक साहित्य (श्वे० ग्रन्थ) ५, ६९, ६७७-६७९ प्रज्ञापनासूत्र, पण्णवणासुत्त, पन्नवणासुत्त ३९८, ३९९ प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि २८१ प्रतिक्रमण ७७७ प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी १८३, ७६५, ७७७-७८४ -प्रभाचन्द्रकृतटीका ७८२-७८४ प्रतिमायोग १८२ प्रतिलेखन, प्रतिलेखना (पिच्छी) १७७, १७८, २४० प्रतीन्द्र ६४१ प्रत्याख्यानग्रन्थ २४१ प्रत्याख्यान-नियुक्ति (मूलाचारगत) २४१ पुण्यप्रकृतियाँ १८६, १८७, ४२३ पुन्नाग (एकप्रकार का वृक्ष) ७०० पुन्नागवृक्षमूलगण ६७४, ६७५, ७००, ७५९ पुन्नाटदेश (कर्नाटक) ७००, ७५९ पुरातन-जैनवाक्य-सूची ४६२, ४६९-४८१, ४८३,४८६,४८९-४९२,४९६,४९७, ४९९,५००,५०३-५०८,५१३,५१५, ५१७,५२०-५२३,५२५,५२७-५३२,, ५३५-५३८ पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म ७४२, ७४३ पुरुषवेद (पुंवेद)-नोकषायकर्म ७४२, ७४३ पुरुषवेद प्रशस्तवेद १८६, १८७ पुरुषशरीर प्रशस्तवेद १८६, १८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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