Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 837
________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७८१ इसके बाद घोषणा की गयी है - " इमं णिग्गथं पावयणं अणुत्तरं --- सेढिमग्गं - मोक्खमग्गं--- उत्तमं तं सद्दहामि तं पत्तियामि तं रोचेमि तं फासेमि--- इदो उत्तरं अण्णं णत्थि, ण भूदं, ण भविस्सदि --- समणोमि । " ( प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/पृ. ६४६९)। मोक्ष का अनुवाद - "यह निर्ग्रन्थलिंग आगम में प्रतिपादित किया गया है । --- इससे उत्कृष्ट मार्ग और कोई नहीं है। • यह निर्ग्रन्थलिंग उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरोहण का उपाय है, मोक्ष का मार्ग है, - मोक्षरूप उत्तम अर्थ का साधक होने से उत्तम है। मैं इसका श्रद्धान करता हूँ, इसको प्राप्त होता हूँ, इसमें ही रुचि करता हूँ, इसका अवलम्बन करता हूँ । --- इस निर्ग्रन्थलिंग से उत्कृष्ट मोक्ष का और कोई मार्ग नहीं है, न कभी था और न कभी होगा । --- - इस निर्ग्रन्थलिंग में स्थित होने से ही मैं श्रमण हूँ ।" १८ ( " तथा एतस्मिन्निर्ग्रन्थलिङ्गे सति 'समणोमि ' श्रमणोऽस्मि मुनिर्भवामि । " प्रभाचन्द्रकृतटीका / प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / पृ.६९ ) । 44 --- उक्त कथन का सार प्रतिपादित करते हुए टीकाकार प्रभाचन्द्र लिखते हैं'उत्कृष्टेन सर्वज्ञप्रणीतागमेन निर्ग्रन्थलिङ्गस्यैव मोक्षादिहेतुतया प्रतिपादकत्वात्-- ।" ( वही / पृ. १२२)। ——— अनुवाद - "सर्वज्ञप्रणीत होने से जो आगम उत्कृष्ट है, उसमें निर्ग्रन्थलिंग को ही मोक्ष का हेतु बतलाया गया है । " इन वचनों से सिद्ध है कि प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में एकमात्र वस्त्रपात्रादिग्रन्थ से रहित निग्रन्थलिंग को ही मोक्ष का उपाय बतलाया गया है, अतः इसमें आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं परशासनमुक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है । यह इसके' यापनीयग्रन्थ न होने, अपितु दिगम्बरग्रन्थ होने का निर्विवाद प्रमाण है। और भी कहा गया है- "पंचमं वदमस्सिदो--- बज्झब्धंतरेसु य ।" इसे स्पष्ट करते हुए टीकाकार प्रभाचन्द्र कहते हैं- " पञ्चमं परिग्रहाद्विरतिलक्षणं व्रतमाश्रितोऽहं- बाह्याभ्यन्तरेषु च द्रव्येषु विरतो भवामि । बाह्यानि वस्त्राभरणादीनि, अभ्यन्तराणि तु द्रव्याणि ज्ञानावरणादीनि ।" ( वही / पृ. १३४)। यहाँ 'परिग्रहविरति' नामक पंचम महाव्रत में वस्त्रादि बाह्य द्रव्यों से विरति (त्याग) आवश्यक बतलायी गयी है। Jain Education International दिगम्बरमतानुसार ही मुनियों के लिए आचेलक्यादि २८ गुण मूलरूप से आवश्यक बतलाये गये हैं। यथा १८. यह अनुवाद प्रभाचन्द्रकृत टीका पर आधारित है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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