Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 830
________________ ७७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ १. देशयति शब्द को विरदाणं (विरत) के प्रतिपक्षी के अर्थ में प्रयुक्तकर तथा उसके लिए विरतों से आधे प्रायश्चित का विधान कर स्पष्ट कर दिया गया है कि 'देशयति' विरतों (श्रमणों) से भिन्न एवं निम्न हैं। २. यापनीय एवं श्वेताम्बर परम्पराओं में भी देशयति को श्रमण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'देशयति' शब्द देश (आंशिक या अल्प) यतित्व या विरतत्व का वाचक है, जब कि 'श्रमण' भले ही वह स्थविरकल्पी हो, श्वेताम्बरशास्त्रों में पूर्ण यति अर्थात् सर्वथा विरत माना गया है। 'यति' और 'विरत' शब्द समानार्थी हैं। उनमें 'देश' विशेषण जोड़ देने से वे श्रावक के वाचक बन जाते हैं। इसीलिए 'छेदपिण्ड' की पूर्वोक्त गाथाओं में ये दोनों शब्द समानार्थ में प्रयुक्त किये गये हैं। श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी देशविरत को अणुव्रती और अणुव्रती को अगारी (श्रावक) कहा गया है, यथा-"हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतम्।" (७/२), 'अणुव्रतधरः श्रावकोऽगारव्रती भवति।' (७/१५)। अतः श्वेताम्बरीय प्रमाणों से भी 'देशयति' शब्द श्रावक का ही वाचक सिद्ध होता है, श्रमण का नहीं। ३. और दिगम्बर-परम्परा के समान यापनीय एवं श्वेताम्बर परम्पराओं में भी श्रमणों के उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद नहीं होते, जिससे उपर्युक्त गाथा में प्रयुक्त उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य शब्दों और उनकी दो, तीन और छह संख्या से यह माना जाय कि उत्कृष्ट श्रमण दो प्रकार के होते हैं, मध्यम श्रमण तीन प्रकार के, और जघन्य श्रमण छह प्रकार के होते हैं। श्रमणों के ऐसे ऊँचे-नीचे भेद और उनकी दो, तीन और छह संख्या और इतने अलग-अलग नाम उपर्युक्त तीनों सम्प्रदायों के आगमों में उपलब्ध नहीं हैं। अतः वे श्रमणों के भेद नहीं, अपितु श्रावकों के ही भेद हैं। ४. यदि देशयति को भी श्रमण माना जाय तो उपर्युक्त गाथा से यह अर्थ प्रतिपादित होगा कि "श्रमणों को श्रमणों के प्रायश्चित्त से उत्तरोत्तर आधा-आधा प्रायश्चित्त देना चाहिए" किन्तु यह अर्थ उपपन्न नहीं होगा, क्योंकि श्रमण को तो श्रमण के ही योग्य प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। उससे आधा प्रायश्चित्त जिसे दिया जायेगा, वह श्रमण नहीं कहला सकता, अश्रमण ही कहलायेगा। ५. किसी भी यापनीयग्रन्थ में श्रमण को 'देशयति' शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। सर्वश्रमण और नोसर्वश्रमण का उल्लेख भी किसी यापनीयग्रन्थ में मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। यापनीयपक्षधर विद्वान् ने भी किसी यापनीयग्रन्थ से उद्धरण देकर उक्त उल्लेख की पुष्टि नहीं की है। तथापि यदि नोसर्वश्रमण को देशयति का समानार्थी माना जाय, तो वह श्रावक का ही वाचक सिद्ध होगा, क्योंकि 'छेदपिण्ड' में 'देशयति' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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