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अ० २४
छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७७ उवसग्ग-वाहिकारण-दप्पेणाचेलभंगकरणम्हि।
उववासो छट्ठमासिय कमेण मूलं तदो इसइ॥ ५१॥ अनुवाद-"जो मुनि उपसर्ग (किसी के द्वारा कष्ट दिये जाने) के भय से वस्त्रधारण कर अचेलव्रत को भंग करता है, उसे उपवास का प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए। जो व्याधि के कारण ऐसा करता है वह षष्ठ (लगातार दो दिनों तक) उपवास का पात्र है तथा जो दर्प के कारण (कामविकार को छिपाने के लिए) अचेलव्रत का उल्लंघन करता है, वह 'मूल' नामक प्रायश्चित्त का अधिकारी है।"
यह प्रायश्चित्त-विधान यापनीयमत के सर्वथा विपरीत है। उसमें व्याधि तो क्या, लज्जा और शीतादिपरीषह सहन न होने पर भी साधु के लिए वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है, जब कि प्रस्तुत 'छेदशास्त्र' में व्याधि की दशा में भी वस्त्रधारण करने को प्रायश्चित्त का हेतु बतलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ किसी भी हालत में यापनीयपरम्परा का नहीं है, अपितु अचेलव्रत के निरतिचारपालन का आग्रह करनेवाली दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है।
प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी दिगम्बरपरम्परा में एक प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी नामक ग्रन्थ है, जिसमें प्रतिक्रमण बृहत्प्रतिक्रमण और आलोचना नामक तीन ग्रन्थों का संग्रह है। इसके कर्ता गौतमस्वामी बतलाये गये हैं। तथा संस्कृत-टीकाकार प्रभाचन्द्र-पण्डित नाम के भट्टारक हैं१२ एवं प्रकाशक हैं नांदणी, तेरदळ एवं बेलगाँवमठ के भट्टारक श्री जिनसेन। इसका सम्पादन पं० मोतीचंद गौतमचंद कोठारी (फलटण) ने किया है। प्रकाशन वर्ष है वीरसंवत् २४७३ (ई० सन् १९४६)। पूर्वोक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने इसे भी यापनीयकृति बतलाया है। (जै.ध.या.स./ पृ.१६०)।
__यदि ग्रन्थकर्ता पर ध्यान दिया जाय, तो न तो यह श्वेताम्बरग्रन्थ है, न यापनीय, न ही दिगम्बरीय, क्योंकि गौतमस्वामी (भगवान् महावीर के प्रथम गणधर) न तो यापनीय थे, न यापनीयों ने अपने किसी ग्रन्थ को गौतमस्वामी द्वारा रचित बतलाया है। श्वेताम्बरपरम्परा अपने सभी आगमों को सुधर्मा स्वामी द्वारा रचित मानती है और दिगम्बरपरम्परा में किसी भी लिपिबद्ध ग्रन्थ को गणधर द्वारा रचित नहीं कहा गया है। तथापि प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में कुछ ऐसे प्रमाण हैं जिनसे यह केवल दिगम्बर-ग्रन्थ ही सिद्ध होता है। फिर भी डॉ० सागरमल जी इस ग्रन्थ को आवश्यक (प्रतिक्रमणसूत्र) शीर्षक
१२. "पेटलापट्के श्रीचन्द्रप्रभदेवपादानामग्रे श्री गौतमस्वामिकृत-प्रतिक्रमणत्रयस्य टीकात्रयं
श्रीप्रभाचन्द्रपण्डितेन कृतमिति।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/ पृ. १९५ ।
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