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छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७३ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यह बात 'छेदपिण्ड' की उत्तरगाथाओं में स्पष्ट कर दी गई है। यथा
संजद-पायच्छित्तस्सद्धादि-कमेण देसविरदाणं। पायच्छित्तं होदित्ति जदि वि सामण्णदो वुत्तं ॥ ३०५ ॥ तो वि महापातकदोससंभवे छहमवि जहण्णाणं।
देसविरदाणमण्णं मलहरणं अत्थि जिणभणिदं॥ ३०६॥ अनुवाद-"संयतों के प्रायश्चित्त का उत्तरोत्तर आधा-आधा प्रायश्चित्त देशविरतों को दिया जाता है, यद्यपि यह सामान्यतः कहा गया है, तथापि महापाप होने पर छहों जघन्य देशविरतों के लिए अन्य प्रायश्चित्त जिनेन्द्रदेव ने बतलाया है।"
यहाँ उत्तम, मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार के श्रावकों के लिए 'देशयति' के स्थान में देशविरत शब्द का प्रयोग कर स्पष्ट कर दिया गया है कि ३०३ क्रमांकवाली गाथा में 'देशयति' शब्द देशव्रती अर्थात् अणुव्रती के अर्थ में व्यवहत हुआ है। 'देशयति' शब्द से ही अंशतः विरत अर्थ सूचित होता है, जो अणुव्रती का पर्यायवाची है। श्रमण तो सकल यति अर्थात् महाव्रती होता है।
तथा छेदशास्त्र, जिसे उक्त यापनीयपक्षधर लेखक ने 'छेदपिण्ड' का ही संक्षिप्त रूप कहा है, उसमें तो देशयति के स्थान में स्पष्टतः श्रावक शब्द प्रयुक्त किया गया
जं सवणाणं भणियं पायच्छित्तं पि सावयाणं पि।
दोण्हं तिण्हं छण्हं अद्धद्धकमेण दायव्वं ॥ ७८॥ संस्कृतटीका-ऋषीणां यत्प्रायश्चित्तं तच्छ्रावकाणामपि भवति। परं किन्तु उत्तमश्रावकाणां ऋषेः प्रायश्चित्तस्य अर्द्धम्। तस्यार्धं ब्रह्मचारिणाम् = तदर्धं मध्यमश्रावकस्य प्रायश्चित्तम्। तदर्धं जघन्यश्रावकस्य प्रायश्चित्तम्। (वही, गाथा ७८ / पृ.१००, टीकाकार के नाम का उल्लेख नहीं है)।
इस गाथा में दो उत्कृष्ट, तीन मध्यम और छह जघन्य, इन तीनों प्रकार के श्रावकों को 'श्रावक' शब्द से अभिहित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि 'देशयति' शब्द श्रावक का ही वाचक है, श्रमण का नहीं। अतः यह आशय ग्रहण करना कि छेदपिण्ड उस यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है, जो एलक-क्षुल्लक को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के अन्तर्गत रखती थी, स्वाभीष्टमत का सत्यापलापी आरोपण है। इसके अतिरिक्त
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