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७५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२३ ३. निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग भी नग्न मुनि के लिए ही हुआ है, यथा नारदपर्वतकथानक (क्र.७६) के निम्नलिखित श्लोक में
सर्वग्रन्थपरित्यागं कृत्वा देहेऽपि निःस्पृहः।
निर्ग्रन्थो नग्नतां प्राप्तो भिक्षां भ्रमति सर्वदा॥ २०७॥ यहाँ यह भी ध्वनित किया गया है कि नग्नता स्वीकार न करना देह में स्पृहा (राग) होने का लक्षण है।
४. हरिषेण ने दिगम्बर शब्द का प्रयोग मुनि के पर्यायवाची के रूप में किया है, जिससे स्पष्ट है कि कोई भी वस्त्रधारी उनकी दृष्टि में 'मुनि' संज्ञा का पात्र नहीं है। सोमशर्म-वारिषेण-कथानक (क्र.१०) का निम्न पद्य द्रष्टव्य है
स्तुत्वा वीरं यथायोग्यं सकलांश्च दिगम्बरान्।
वारिषेणोऽमुना सार्धं स्वस्थाने समुपाविशत्॥ ४७॥ अनुवाद-"भगवान् महावीर और सकल (समस्त) दिगम्बरों (नग्न मुनियों) की स्तुति करके वारिषेण सोमशर्मा के साथ अपने स्थान पर बैठ गये।" वासुदेवकथानक (क्र.२९) का अधोलिखित पद्य भी इसका एक उदाहरण है
नेमिनाथनुतिं कृत्वा सकलांश्च दिगम्बरान्।
वन्दित्वाऽयं सुखं तस्थौ वासुदेवः सवैद्यकः॥ १२॥ अनुवाद-"भगवान् नेमिनाथ की स्तुति तथा सकल दिगम्बरों की वन्दना करके वासुदेव, वैद्य के साथ सुखपूर्वक आसीन हो गये।
___ यहाँ सकलांश्च दिगम्बरान् उक्तियों से यह भी ध्वनित होता है कि हरिषेण की मान्यतानुसार भगवान् नेमिनाथ और महावीर के समवसरण में केवल दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व था, अपवादलिंगी सवस्त्र मुनियों (स्थविरकल्पियों) का नहीं। यदि हरिषेण यापनीय होते, तो सकल मुनियों में दिगम्बरों के साथ स्थविरों का भी उल्लेख करते हुए उन्हें भी नमस्कार किये जाने का वर्णन करते। ऐसा नहीं किया, इससे स्पष्ट है कि वे यापनीय नहीं थे, अपितु दिगम्बर थे।
५. बृहत्कथाकोश में दैगम्बरी दीक्षा को ही संसाररूपी समुद्र को पार करानेवाली तथा कर्मों का नाश करनेवाली कहा गया हैददौ दैगम्बरी दीक्षां संसारार्णवतारिणीम्।
पद्मरथनृप-कथानक / क्र.५९/श्लोक ३२। दधौ दैगम्बरीं दीक्षां संसारार्णवतारिणीम्।
मयूरकथानक / क्र.१०२-१० / श्लोक २९।
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