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अ०२३
बृहत्कथाकोश / ७५५ अवाचि जिनदासेन रुद्रदत्तः कुतूहलात्। गृहीतं सर्वकालं नो ब्रह्मचर्यं यदि त्वया॥ ४०॥ विद्यते मद्गृहे कन्या ब्राह्मणी रूपशालिनी। मिथ्यादर्शनयुक्तेभ्यो न दत्ता सा मया सती॥ ४१॥ सम्यग्दर्शनयुक्तस्य श्रावकस्य ददामि । ते।
यदीच्छा विद्यते तस्यास्ततः पाणिग्रहं कुरु॥ ४२ ॥ यद्यपि एक क्षुल्लक का आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण न करना जिनागम के विरुद्ध है, तथापि रुद्रदत्त नामक ब्राह्मण युवक क्षुल्लक का कपटवेश धारण करता है और जिनदास श्रेष्ठी उस क्षुल्लक को श्रावक की श्रेणी में परिगणित करता है, यह ध्यान देने योग्य है।
जिनदास श्रेष्ठी दिगम्बरपरम्परानुसार उक्त क्षुल्लक को मुनियों के योग्य नमोऽस्तु निवेदित न कर श्रावकों के योग्य इच्छाकार निवेदित करता है। खण्डश्रीकथानक (क्र. ६५) का यह श्लोक द्रष्टव्य है
विलोक्य क्षुल्लकं श्रेष्ठी चैत्यगेहे व्यवस्थितम्।
इच्छाकारं विधायास्य पप्रच्छेति स तोषतः॥ २५॥ विद्युल्लतादिकथानक (क्र.७०) में भी क्षुल्लक को इच्छाकार किये जाने का वर्णन है
दृष्ट्वा तं क्षुल्लकं तेन धर्मवात्सल्यकारणात्।
श्रेष्ठिना सङ्ग्रहीतोऽसाविच्छाकारं प्रकुर्वता॥ ८६ ॥ यशोधर-चन्द्रमतीकथानक (क्र.७३) के पूर्वोद्धृत 'युवां सुकुमाराङ्गा' इत्यादि श्लोकत्रय (२३७, २३८,२९९) में वर्णन है कि वैराग्य को प्राप्त दो राजकुमार मुनिमहाराज से मुनिदीक्षा की प्रार्थना करते हैं, किन्तु मुनिराज उनसे कहते हैं कि अभी तुम्हारा शरीर सुकुमार है, उसे परीषह सहने का अभ्यास नहीं है। अतः तुम्हारे लिए मुनिव्रत का पालन दुष्कर है। अभी तुम्हें क्षुल्लकधर्म का अभ्यास करना चाहिए। आगे चलकर मैं तुम दोनों को दिगम्बरधर्म प्रदान करूँगा। वे दोनों क्षुल्लक बन जाते हैं और बाद में क्षुल्लकधर्म का परित्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि हरिषेण ने क्षुल्लक को मुनितुल्य एवं मोक्ष के योग्य नहीं माना है, उसे श्रावक की श्रेणी में ही परिगणित किया है और स्पष्ट किया है कि क्षुल्लक का पद त्याग कर दिगम्बरमुनि दीक्षा लेने पर ही मोक्ष संभव है।
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