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७६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२३ इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम्। जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि॥ ६७॥ अर्धफालक - संयुक्तमज्ञात -परमार्थकैः।
तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरैः शक्तिवर्जितैः॥ ६८॥ यह कथन तो यापनीयों के लिए अत्यन्त लज्जाजनक है। इसमें सवस्त्र अपवादलिंग नामक स्थविरकल्प को शिथिलाचारी, परीषहभीरु और परमार्थ के ज्ञान से शून्य अज्ञानियों द्वारा कल्पित बतलाया गया है, जबकि यापनीय उसे सर्वज्ञ महावीर द्वारा उपदिष्ट मानते थे।
६. कथानक में कहा गया है कि अर्धफालकधारी साधुओं ने सौराष्ट्रदेश की वलभीपुरी में राजा की आज्ञा से अर्धफालक त्यागकर ऋजुवस्त्र धारण कर लिया। तब से काम्बलतीर्थ (श्वेताम्बरसम्प्रदाय) प्रचलित हो गया। पश्चात् इस काम्बलसम्प्रदाय से दक्षिणभारत के सावालिपत्तन में यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई
यदि निर्ग्रन्थतारूपं ग्रहीतुं नैव शक्नुथ। ततोऽर्धफालकं हित्वा स्वविडम्बनकारणम्॥ ७८॥ ऋजुवस्त्रेण चाच्छाद्य स्वशरीरं तपस्विनः। तिष्ठत प्रीतिचेतस्का मद्वाक्येन महीतले ॥७९॥ लाटानां प्रीतिचित्तानां ततस्तदिवसं प्रति। बभूव काम्बलं तीर्थं वप्रवादनृपाज्ञया॥८०॥ ततः कम्बलिकातीर्थान्नूनं सावलिपत्तने।
दक्षिणापथदेशस्थे जातो यापनसङ्घकः॥ ८१॥ यह उल्लेख भी यापनीयों के लिए अपमानजनक है, क्योंकि इसमें उनकी उत्पत्ति एक ऐसे साधुवर्ग से बतलाई गई है जो राजा की आज्ञा से अपने लिंग (वेष) को बदल लेता है। इससे स्पष्ट होता है कि उनका लिंग सर्वज्ञोपदिष्ट नहीं था, अपितु राजा द्वारा आरोपित था, फलस्वरूप उन्होंने उसे कर्मक्षय के लिए नहीं, अपितु राजमान्यता और लोकमान्यता प्राप्त कर जीवननिर्वाह के लिए अपनाया था।
अब यदि इस कथानक के अन्तिम श्लोक को प्रक्षिप्त मान भी लिया जाय, तो भी उपर्युक्त सभी उल्लेख यापनीयमत के घोरविरोधी हैं। और बृहत्कथाकोश के अन्य कथानकों में उपलब्ध स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति का निषेध करनेवाले कथन तो यापनीयमत-विरोधी हैं ही। इस प्रकार सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों से परिपूर्ण है। इसलिए भद्रबाहु-कथानक का अन्तिम श्लोक, जिसे प्रक्षिप्त मान लिया गया है, वह प्रक्षिप्त सिद्ध नहीं होता।
उपर्युक्त यापनीयमत-विरोधी सात तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है।
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