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अ० २४
छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७६७ ऐसे ही प्रायश्चित्त का विधान छेदपिण्ड की निम्नलिखित गाथाओं में भी किया गया है
एगवराडय-कागिणि -पणचेलाइं पमाददोसेण। अप्पं परिग्गहं जो गेहदि णिग्गंथवदधारी॥ ६१॥ आलोयणा य काउस्सग्गो खमणं च णियमसंजुत्तं।
सपडिक्कमणुववासो कमसो छेदो इमो तस्स॥ ६२॥ अनुवाद-"जो निर्ग्रन्थव्रतधारी प्रमादवश एक बड़ी कौड़ी, छोटी कौड़ी या पाँच प्रकार के वस्त्रों (अंडज = कोशज, बोंडज कसज, वक्कजवल्कज, रोमज तथा चम्मज= चर्मज) में से किसी भी वस्त्र का अल्पपरिग्रह भी ग्रहण करता है, वह आलोचना, कायोत्सर्ग, नियमयुक्त उपवास तथा सप्रतिक्रमण उपवास का पात्र है।"
इस प्रकार 'छेदपिण्ड' में किसी रोग के होने पर भी मुनि का वस्त्रग्रहण आचेलक्यमूलगुण या अपरिग्रहमहाव्रत के भंग का कारण होने से प्रायश्चित्त के योग्य माना गया है, जब कि यापनीयसम्प्रदाय में लज्जा या शीतादि के सहन में असमर्थ होने पर भी वस्त्रग्रहण की छूट है। इससे सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है।
यापनीयपक्ष-समर्थक हेतुओं का निरसन डॉ० सागरमल जी ने छेदपिण्ड को यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में जो हेतु विन्यस्त किये हैं, उनका निरसन नीचे किया जा रहा है। 'हेतु' यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे और 'निसरन' दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे प्रस्तुत है।
दिन
दिगम्बरग्रन्थों में भी 'श्रमणी' का उल्लेख यापनीयपक्ष
'छेदपिण्ड' में श्रमणी का स्पष्ट उल्लेख है और इसमें श्रमणियों के लिए वे ही प्रायश्चित्त हैं, जो श्रमणों के लिए हैं। श्रमणियों के लिए मात्र पर्यायछेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकालयोग नामक प्रायश्चित्तों का निषेध है। श्रमणों और श्रमणियों की इस समानता का प्रतिपादन छेदपिण्ड के यापनीयग्रन्थ होने का सूचक है। (जै.ध.या.स.(पृ.१४४)।
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