Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 822
________________ ७६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ प्रमाण मानते थे,' अतः स्पष्ट है कि श्वेताम्बर-आगमों में मुनियों के लिए जो २७ मूलगुण निर्धारित किये गये हैं, वे ही यापनीय-मुनियों के लिए भी प्रमाणभूत थे। इन २७ मूलगुणों में पाँच समितियाँ, छह आवश्यक, आचेलक्य, केशलोच, अस्नान, अदन्तधावन, क्षितिशयन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अठारह मूलगुण समाविष्ट नहीं हैं, जो 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ में वर्णित हैं। इससे सिद्ध है कि यापनीयों के लिए अमान्य और दिगम्बरमान्य अट्ठाईस मूलगुणों का प्रतिपादन करनेवाला 'छेदपिण्ड' यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। अचेलव्रत भंग करने पर प्रायश्चित का विधान छेदपिण्ड में अचेलव्रत को भंग करने पर निम्नलिखित प्रायश्चित्त दिये जाने का नियम बतलाया गया है- .. उवसग्गदो अणारोगदो कारणवसेण दप्पादो। गिहि-अण्णतित्थ-लिंगग्गहणेणाचेलवदभंगे॥ १२४॥ जादे पायच्छित्तं खमणं छटुं कमेण संठाणं। मूलं पि य जणणादे दायव्वं एगवारम्मि॥ १२५॥ संस्कृत छाया उपसर्गतः अनारोगतः कारणवशेन दर्पतः। गृह्यन्यतीर्थलिङ्गग्रहणेन अचेलव्रतभङ्गे ॥ १२४॥ • जाते प्रायश्चित्तं क्षमणं षष्ठं क्रमेण संस्थानम्। मूलमपि च जनज्ञाते दातव्यं एकवारे॥ १२५ ॥ अनुवाद-"जो मुनि किसी के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर अथवा किसी रोग से ग्रस्त हो जाने पर अथवा दर्प के कारण गृहस्थ का अथवा अन्यतीर्थिक (अन्यधर्मावलम्बी) का लिंग (वेश) ग्रहणकर अचेलव्रत का भंग करता है, उसे क्रमशः खमण (उपवास)२ षष्ठ (छह भुक्तियों का त्याग-मूलाचार/गा.८१२) तथा मूल नामक प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए।" १. देखिये, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'मूलाचार' अध्याय। २. क- "खमणे वा--- क्षपणे वानशने।" तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार / ३ / १५ । ख- "खमण (क्षपण, क्षमण) = उपवास।" पाइअ-सद्द-महण्णवो। ३. आलोयण पडिकमणो उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो। तव परियायच्छेदो मूलं परिहार सद्दहणा॥ १७४ ॥ एवं · दसविध समए पायच्छित्तं रिसीगणे भणियं। तं केरिसेसु दोसेसु जायदे इदि पयासेमो॥ १७५ ॥ छेदपिण्ड। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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