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७५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२३ "उन दोनों क्षल्लकों ने क्षल्लक-धर्म त्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली" (देखिये, शीर्षक २/ अनुच्छेद ३)। इस कथन से तो एकदम स्पष्ट हो जाता है कि हरिषेण के अनुसार क्षुल्लक और मुनि अलग-अलग श्रेणी के साधक हैं। क्षुल्लक का पद मुनिपद से हीन है और मुनि से हीन पद श्रावक का ही होता है।
हरिषेण की दृष्टि में क्षुल्लक किसी को मुनिदीक्षा देने के योग्य नहीं होता। यशोधर-चन्द्रमतीकथानक (क्र.७३) में राजा मारिदत्त एक क्षुल्लक से मुनिदीक्षा की प्रार्थना करता है, किन्तु क्षुल्लक कहता है कि मैं तुम्हें दीक्षा देने में समर्थ नहीं हूँ, हमारे गुरु ही तुम्हें मुनिदीक्षा दे सकते हैं। १४ यह सुनकर राजा सोचता है कि सारी प्रजा मेरे चरणों का आश्रय लेती है, मैं देवताओं के चरणों का आश्रय लेता हूँ , देवता क्षुल्लक के चरणों का अवलम्बन करते हैं और क्षुल्लक मुनि के चरणों की शरण लेते हैं। अहो! मुनि का पद कितना महान् है! राजा, सुदत्तमुनि के पास जाकर मुनिदीक्षा ले लेता है। (यशो. चन्द्र. कथा./ क्र.७३/श्लोक २८७-२९८)। इससे भी सिद्ध है कि हरिषेण क्षुल्लक को उत्कृष्ट श्रावक की ही श्रेणी में रखते हैं।
__इसके अतिरिक्त उपर्युक्त कथानक में पहले मुनि को नमस्कार किये जाने का वर्णन है, पश्चात् क्षुल्लकों को-"ततो नत्वा मुनिं भक्त्या तदा क्षुल्लकयुग्मकम्।" (श्लोक २५१)। यह भी मुनि और क्षुल्लक में महान् भेद स्वीकार किये जाने का प्रमाण है।
स्त्रियों में क्षुल्लिका और आर्यिका इन दो पदों का वर्णन किया गया है, जिनमें क्षुल्लिका आर्यिका से हीन मानी गई है। यह भी क्षुल्लक ओर क्षुल्लिका दोनों को श्रावकश्रेणी में मान्य किये जाने का सबूत है। आर्यिका को यद्यपि उपचारमहाव्रती होने से क्षुल्लिका से उच्च पद दिया गया है, तथापि हरिषेण दिगम्बर (नग्न) मुनि को ही मोक्ष का पात्र मानते हैं। इससे सिद्ध है कि उनकी दृष्टि में आर्यिका का पद मुनिपद से निम्न है।
१४. देहि मे क्षुल्लक स्वामिन्! प्रव्रज्यां भवनाशिनीम्।
येनाहं त्वत्प्रसादेन करोमि हितमात्मनः॥ २८४॥ मारिदत्तोदितं श्रुत्वा क्षुल्लकोऽपि जगाद तम्। दातुं ते न समर्थोऽहं दीक्षामुत्तिष्ठ भूपते ॥ २८५॥ अस्माकं गुरवः सन्ति कीर्तिच्छन्नदिगन्तराः।
ते समर्थास्तपो दातुं भवतो ज्ञानिनोऽमलाः॥ २८६॥ यशोधर-चन्द्रमती-कथानक। २५. क- अभयादिमतिर्भक्त्या जग्राह क्षौल्लकं व्रतम्॥ २४०॥ यशोधर-चन्द्रमती-कथानक। . ख- धर्मश्रियोऽर्यिकाया हि धर्मविन्यस्तचेतसः।
ततः समाधिगुप्तेन क्षुल्लिकेयं समर्पिता॥ २८॥ लक्ष्मीमती-कथानक / क्र.१०८।
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