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बृहत्कथाकोश / ७५३ दीक्षां दैगम्बरीं चास्मै दीयतां कर्मनाशिनीम्।
सोमदत्त-विधुच्चौर-कथानक / क्र. ४ / श्लोक ६३। ददौ दैगम्बरीं दीक्षां हतयेऽखिलकर्मणाम्।
सोमदत्त-विधुच्चौर-कथानक / क्र.४/श्लोक ६८। ६. वस्त्रधारण करने को मुक्ति में बाधक बतलाया गया है। बृहत्कथाकोश के भद्रबाहुकथानक (१३१) में वर्णन है कि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय जो मुनिसंघ रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और भद्राचार्य के नेतृत्व में सिन्धुदेश चला गया था, उसने भिक्षाग्रहण के समय होनेवाले उपद्रवों से बचने के लिए अर्धफालक (नग्नता को छिपाने के लिए बायें हाथ पर लटकाया गया अर्धवस्त्र) ग्रहण कर लिया था और मुनि भिक्षापात्र भी पास में रखने लगे थे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर जब वे लौटे तब रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और भद्राचार्य ने संघ के मुनियों से कहा कि अब हमें मोक्ष प्राप्त करने के लिए अर्धफालक त्यागकर निर्ग्रन्थरूप धारण कर लेना चाहिए। उनके वचन सुनकर अनेक मुनियों ने अर्धफालक त्यागकर निर्ग्रन्थरूप धारण कर लिया। रामिल्ल आदि तीनों ने भी संसार से भयभीत होकर निर्ग्रन्थरूप ग्रहण कर लिया, किन्तु जिन अज्ञानी, कायर और शक्तिहीन मुनियों को गुरुओं के ये संसारसमुद्र से पार लगानेवाले वचन नहीं रुचे, उन्होंने अपने मन से जिनकल्प (अचेललिंग) और स्थविरकल्प (सचेललिंग) इन दो प्रकार के मोक्षमार्गों की कल्पना कर अर्धफालक सम्प्रदाय चला दिया। देखिए हरिषेण के भद्रबाहुकथानकगत ये वचन
रामिल्ल-स्थविर-स्थूलभद्राचार्याः स्वसाधुभिः। आहूय सकलं सङ्घमित्थमूचुः परस्परम्॥ ६२॥ हित्वाऽर्धफालकं तूर्णं मुनयः प्रीतमानसाः। निर्ग्रन्थरूपतां सारामाश्रयध्वं विमुक्तये॥ ६३॥ श्रुत्वा तद्वचनं सारं मोक्षावाप्तिफलप्रदम्। दधुर्निर्ग्रन्थतां केचिन्मुक्तिलालसचेतसः॥ ६४॥ रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी। महावैराग्यसम्पन्ना विशाखाचार्यमाययुः॥ ६५॥ त्यक्त्वाऽर्धकर्पटं सद्यः संसारात्रस्तमानसाः। नैर्ग्रन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः॥ ६६॥ इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम्। जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि॥ ६७॥
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