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७३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २२ / प्र० २
इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में भी तीर्थंकर के द्वारा मागधीभाषा में उपदेश दिये जाने का कथन उपलब्ध होता है। अतः उसे केवल श्वेताम्बरमान्यता कहना सत्य नहीं हैं। इसलिए पउमचरिउ को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया यह हेतु भी हेत्वाभास है, क्योंकि यह यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म नहीं है।
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अदिगम्बरीय मान्यताओं का यापनीय मान्यता होना अप्रामाणिक
यापनीयपक्ष
१. स्वयंभू ने अपने पउमचरिउ ( २ / ३४ / ८ / ४-५ ) में अनस्तमित- भोजन का वर्णन करते हुए कहा है कि गन्धर्वदेव दिन के पूर्व में, सभी देव दिन के मध्य में, पिता- पितामह दिन के अन्त में तथा राक्षस, भूत, पिशाच और ग्रह रात्रि में खाते हैं। यक्ष-राक्षसादिकों का यह कवलाहार दिगम्बरपरम्परा को इष्ट नहीं है, उनके अनुसार देवताओं का मानसिक अमृताहार होता है । १९
२. पउमचरिउ में १६वें स्वर्ग में अवस्थित सीता के जीव स्वयंप्रभदेव का रावण तथा लक्ष्मण को सम्बोधित करने के लिए तीसरी पृथिवी बालुकाप्रभा में गमन बताया गया है (२/८९/८/३-४) । धवलाटीका के अनुसार १३ वें से १६ वें स्वर्ग तक के देव प्रथम नरक के चित्राभाग से आगे नहीं जाते हैं। (ष. खं/पु.४/पृ. २३८२३९) ।
३. पउमचरिउ में भगवान् अजितनाथ के वैराग्य का कारण म्लान कमल बताया गया है (१/५/२/२-३) और तिलोयपण्णत्ती में उल्कापात ( ४ / ६१५) ।
४. भगवान् महावीर के द्वारा चरणाग्र से मेरु का कम्पित किया जाना बताया गया है, जो श्वेताम्बरमान्यता है । ( १/१/७/१) ।
५. दिगम्बरीय उत्तरपुराण (४८ / १३७) में सगरपुत्रों का मोक्षगमन वर्णित है, पर पउमचरियं (५/१०/२- ३) में विमलसूरि तथा पद्मपुराण में रविषेण के अनुसार भीम और भगीरथ, दो पुत्रों को छोड़कर शेष का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना वर्णित है।
इन वर्णनों के आधार पर स्वयंभू यापनीय सिद्ध होते हैं । (या. औ. उ. सा. / पृ. १५६ - १५७) ।
१९. “देवेसु मणाहारो।" प्राकृत - भावसंग्रह / गाथा ११२ ।
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