Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 798
________________ ७४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २३ १२५) अर्थात् आर्यिका रुक्मिणी स्त्रीत्व को लेकर स्वर्ग में महान् देव हुईं । यहाँ स्त्रीत्व को स्वर्ग में ले जाने का क्या तात्पर्य है, यह बुद्धिगम्य नहीं है । यदि स्त्रीत्व से तात्पर्य स्त्रीवेदनोकषाय और स्त्रीशरीरांगोपगनामकर्म (द्रव्यस्त्रीवेद) से है, तो उपर्युक्त कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि इन दोनों वेदों (भावस्त्रीवेद और द्रव्यस्त्रीवेद) का उदय तो स्त्रीपर्याय की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है। तथा परभविक देवायु का बन्ध करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव के साथ पुंवेदनोकषायकर्म तथा पुरुषशरीरांगोपांग - नामकर्म नियम से बँधते हैं। और यदि सम्यग्दर्शन होने के पूर्व परभव-सम्बन्धी स्त्रीवेदनोकषाय-कर्म या नपुंसकवेदनोकषाय-कर्म तथा स्त्रीशरीरांगोपांगनामकर्म या नपुंसकशरीरांगोपांग - नामकर्म बँध गये हैं, तो इनमें से ये दोनों नाम कर्म पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म में परिवर्तित हो जाते हैं। इस तथ्य का उल्लेख डॉ० पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने निम्नलिखित शब्दों में किया है " सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीपर्याय में उत्पन्न नहीं होता है। यदि उसे सम्यग्दर्शन के पूर्व स्त्रीवेद का बन्ध पड़ गया है, तो वह पुरुषवेद के रूप में परिवर्तित हो जाता है । तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों में पूर्वबद्ध नपुंसकवेद भी पुरुषवेद के रूप में परिवर्तित हो जाता है।" ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार / विशेषार्थ १/ ३५/पृ.७६)। यहाँ स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद से द्रव्यवेद ( शरीरांगोपांग - नामकर्म) विवक्षित है, भाववेद नहीं, क्योंकि भाववेद अर्थात् पुंवेदनोकषाय, स्त्रीवेदनोकषाय तथा नपुंसकवेदनोकषाय एक-दूसरे में परिवर्तित नहीं होते । जीव में इन तीनों का पृथक्-पृथक् सत्त्व नौवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त रहता है और उसके आगे ही उनका क्रमशः क्षय होता है । (स.सि./ १० / २) | किन्तु औदारिक- शरीरसम्बन्धी पुरुषशरीरांगोपांग, स्त्रीशरीरांगोपांग एवं नपुंसकशरीरांगोपांग, इन तीन नामकर्मों का सत्व एक साथ नहीं होता, क्योंकि सयोगकेवली - गुणस्थान में औदारिकशरीर-सम्बन्धी केवल औदारिकशरीरांगोपांग नामक एक ही प्रकृति का सत्त्व बतलाया गया है, जो केवली के पुरुष होने पुरुषशरीरागोपांगरूप होती है । ( स.सि./ १० / २) इससे सिद्ध होता है कि यदि कोई जीव मिथ्यादृष्टि अवस्था में स्त्रीशरीरांगोपांग अथवा नपुंसकशरीरांगोपांग नामकर्म का बन्ध करता है, तो सम्यग्दर्शन होने पर वह पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म में परिवर्तित हो जाता है और वह पुंवेदनोकषायकर्म तथा पुरुषशरीरांगोपांग नामकर्म का ही बन्ध करता 1 इससे यह निर्णय भी होता है कि मिथ्यादृष्टि जीव यदि पहले स्त्रीशरीरांगोपांग - नामकर्म ९. यह अवश्य है कि जब कोई एक भाववेद उदय में आता है, तब अन्य दो भाववेद एक समय पूर्व स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदय को प्राप्त भाववेद के रूप में संक्रमित होकर उदय में आते हैं। (देखिये, पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व / भाग १ / पृ. ४५५ ) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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