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अ० २३
बृहत्कथाकोश / ७४३ या नपुंसकशरीरागोपांग-नामकर्म बाँधता है और उसके बाद विशुद्धपरिणामवश पुंवेदनोकषायकर्म एवं पुरुषशरीरांगोपांग-नामकर्म का बन्ध करता है, तो पूर्वबद्ध स्त्रीशरीरांगोपांगनामकर्म या नपुंसकशरीरांगोपांग-नामकर्म पुरुषशरीरांगोपांग-नामकर्म में बदल जाता है। मायाचार आदि संक्लेशपरिणाम की विशेषता से इसके विपरीत होना भी संभव है।
इसी प्रकार यदि कोई जीव मिथ्यात्वदशा में देवगति के साथ स्त्रीवेदनोकषायकर्म एवं वैक्रियिक-स्त्रीशरीरांगोपांग-नामकर्म का बन्ध करता है, तो सम्यक्त्व प्राप्त करने पर उसे पुंवेदनोकषायकर्म एवं वैक्रियिक-पुरुषशरीरांगोपांगनामकर्म का ही बन्ध होता है तथा उसका पूर्वबद्ध वैक्रियिक-स्त्रीशरीरांगोपांग-नामकर्म वैक्रियिक-पुरुषशरीरांगोपांगनामकर्म का रूप धारण कर लेता है। तथा यदि कोई मिथ्यादृष्टि जीव नरकगति के साथ नपुंसकवेदनोकषायकर्म एवं वैक्रियिक-शरीरांगोपांग-नामकर्म बाँधता है, तो उसका वह शरीरांगोपांगनामकर्म नपुंसकशरीरांगोपांगरूप होता है।
निष्कर्ष यह कि जो जीव मिथ्यात्वदशा में स्त्रीवेदनोकषायकर्म एवं स्त्रीशरीरांगोपांगनामकर्म बाँध लेता है, वह सम्यग्दर्शन होने पर पुंवेदनोकषायकर्म एवं पुरुषशरीरांगोपांगनामकर्म का बन्ध करने लगता है, और उसका पूर्वबद्ध स्त्रीवेदनोकषायकर्म तो ज्यों का त्यों सत्ता में रहता है, किन्तु स्त्रीशरीरांगोपांग-नामकर्म पुरुषशरीरांगोपांग-नामकर्म में परिवर्तित हो जाता है। अतः जब वह देवायु का बन्ध कर स्वर्ग में जाता है, तो भावपुरुषत्व और द्रव्यपुरुषत्व को ही लेकर जाता है। वहाँ उसके पूर्वबद्ध भावस्त्रीवेद (स्त्रीवेदनोकषायकर्म) और भावनपुंसकवेद (नपुंसकवेद-नोकषायकर्म) भी उदय को प्राप्त भावपुरुषवेद के रूप में स्तिबुकसंक्रमण कर उदय में आने लगते हैं। अतः बृहत्कथाकोशकार हरिषेण का यह कथन आगमसम्मत नहीं है कि 'रुक्मिणी स्त्रीत्व को साथ में लेकर स्वर्ग में महान् देव हुई' अथवा 'रोहिणी स्त्रीत्व को लेकर अच्युतकल्प में दिव्यधुंन्दीधर देव हुई।' (५७ / ५८४)। जब स्त्रीत्व शेष ही नहीं रहा, तब उसे लेकर रुक्मिणी या रोहिणी स्वर्ग में कैसे जा सकती है?
हरिषेण ने बृहत्कथाकोश में व्याकरणसम्बन्धी भी अनेक अनियमितताएँ की हैं, जिन्हें डॉ० एन० एन० उपाध्ये ने सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित बृहत्कथाकोश की प्रस्तावना (पृ. ९४-११२) में उद्घाटित किया है। इन उदाहरणों को देखते हुए यह आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं होता कि दिगम्बर हरिषेण ने स्त्री को तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कथन सैद्धान्तिक अनभिज्ञतावश किया है। यापनीयपक्ष
यापनीयपक्षधर विद्वान् ने तीसरा हेतु यह प्रस्तुत किया है कि बृहत्कथाकोश के अशोकरोहिणी कथानक में रोहिणी महारानी के द्वारा सर्वपरिग्रहत्याग किये जाने
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