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अ०२३
बृहत्कथाकोश / ७४५ के विषय में सिद्धि का अर्थ इच्छित लौकिक पदार्थ की प्राप्ति है, न कि मोक्ष की प्राप्ति। मोक्ष की प्राप्ति तो उन्होंने जन्तुमात्र (प्राणिमात्र) के लिए जैनेन्द्री दीक्षा के द्वारा ही बतलाई है। उदाहरणार्थ, अशोकरोहिणीकथानक (क्र.५७) के निम्नलिखित पद्य दर्शनीय हैं
कालं कृत्वा ततो जन्तुर्मौनव्रतविधानतः। देवः कलस्वनः स्वर्गे जायते भोगसंयुतः॥ ५५६ ॥ ततस्तत्र सुखं भुक्त्वा भुवं प्राप्य विशुद्धधीः। चक्रवादिकान् भोगान् भूयो भुङ्क्ते स तत्फलात्॥ ५५७॥ भौमान् भोगान् पुनर्भुक्त्वा मनोऽभिलाषितांश्चिरम्।
दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं सिद्धिं याति स नीरजाः॥ ५५८॥ __ अनुवाद-"जो प्राणी मौनव्रत का पालन करते हुए समय व्यतीत करता है, वह स्वर्ग में मधुर स्वर एवं भोग से संयुक्त देव होता है। वहाँ स्वर्गिक सुखों का आस्वादन कर भूमि पर आता है और चिरकाल तक चक्रवर्ती आदि के मनोऽभिलाषित भोगों को भोगता है। पश्चात् जैनेन्द्री (दैगम्बरी) दीक्षा ग्रहण कर कर्ममुक्त हो सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करता है।"
२. इसी अशोकरोहिणीकथानक (क्र.५७) में बतलाया गया है कि मौनव्रत के फलों का श्रवण करनेवाले राजा अशोक ने श्रावक होते हुए भी जैनेन्द्री (दैगम्बरी) दीक्षा ग्रहण की और उग्र तप के द्वारा कर्मों का विनाश कर निर्वाण प्राप्त किया। यथा
वासुपूज्यं जिनं भक्त्या त्रिः परीत्य प्रणम्य च। दीक्षां जग्राह जैनेन्द्रीं तदन्तेऽशोकभूपतिः॥ ५७९ ॥ उग्रं तपो विधायायं कालेन बहुना ततः।
क्षीणकर्मा जगामाशु निर्वाणं परमुत्तमम्॥ ५८१॥ ३. ग्रन्थकार ने यशोधर-चन्द्रमती कथानक (क्र.७३) में भी वर्णन किया है कि दो राजकुमार सुदत्तमुनि से अपने पूर्वभव का वृतान्त सुनकर विरक्त हो जाते हैं और उनसे मुनिदीक्षा की याचना करते हैं। सुदत्तमुनि उनसे कहते हैं-"आप लोगों के अंग सुकुमार हैं। उन्हें परीषह सहने का अभ्यास नहीं है। इसलिए अभी आप मुनिव्रत का पालन नहीं कर पायेंगे। इस समय आप लोगों को क्षुल्लक-धर्म का पालन करना चाहिए , मुनिदीक्षा बाद में दूँगा।" देखिए
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