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७४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २३
है, श्रावकों का मौन कर्मविनाशक शुक्लध्यान का साधक नहीं है, अतः उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इससे यह अर्थ प्रतिफलित होता है कि यतः श्रावकों को मौनव्रत. से कर्मविनाशक शुक्लध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती, अतः उन्हें उससे इन्द्रपद, मनोहररूप, मधुरवचन, दुःसाध्य विद्याएँ इत्यादि लौकिक फलोपलब्धिरूप सिद्धि ही प्राप्त होती है। इसीलिए अशोकरोहिणी - कथानक ( क्र. ५७) के कालं कृत्वा ततो जन्तुर्मौनव्रतविधानतः इत्यादि पूर्वोद्धृत श्लोकों (५५६-५५८) में कहा गया है कि मौनव्रत के पालन से जीव स्वर्ग के भोग भोगता है और वहाँ से पृथ्वी पर आकर चक्रवर्ती आदि के भोग भोगने के बाद जैनेन्द्री (दैगम्बरी) दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करता है।
३. कश्चिद् अणुव्रतधरः सिद्धिभक्तः सिद्धिं व्रजेत् (श्लोक ५६७ ) इस वाक्य में कश्चित् शब्द के प्रयोग से स्पष्ट किया है कि लौकिक फलों की सिद्धि का भक्त (इच्छुक) कोई-कोई ही श्रावक होता है, सब नहीं । प्रायः सभी श्रावक मोक्षार्थी ही होते हैं, क्योंकि श्रावकधर्म मोक्षमार्गभूत मुनिधर्म के अभ्यासार्थ ही ग्रहण किया जाता है। यह बात हरिषेण ने पूर्वोद्धृत यशोधर - चन्द्रमती - कथानक में स्पष्ट कर दी है, जिसमें सुदत्त मुनि दो राजकुमारों को सुकुमार होने के कारण शुरू में मुनिदीक्षा नहीं देते, अपितु क्षुल्लकदीक्षा देते हैं और कुछ समय बाद समर्थ हो जाने पर मुनिदीक्षा प्रदान करते हैं। इस प्रकार यहाँ प्रयुक्त कश्चित् शब्द स्पष्ट करता है कि श्रावकों के प्रसंग में सिद्धि शब्द लौकिकफल- प्राप्ति का वाचक है, मोक्षप्राप्ति का नहीं ।
यदि आचार्य हरिषेण गृहस्थ अवस्था को मुक्ति का मार्ग मानते, तो वे यह न कहते कि चक्रवर्ती आदि जैनेन्द्री ( दैगम्बरी) दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। और पूर्वोक्त दो राजकुमारों को न तो क्षुल्लकदीक्षा दिये जाने का वर्णन करते, न दैगम्बरी दीक्षा दिये जाने का । वे यह वर्णन करते कि " सुदत्तमुनि ने उन राजकुमारों से कहा कि तुम राजपरिवार के हो इसलिए तुम्हें न तो क्षुल्लकदीक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता है, न दैगम्बरीदीक्षा की, तुम गृहस्थ अवस्था से ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हो ।" किन्तु हरिषेण ने ऐसा वर्णन नहीं किया, अपितु यह कहा है कि सुदत्तमुनि ने उन्हें पहले क्षुल्लक दीक्षा दी, उसके कुछ समय बाद क्षुल्लकदीक्षा का परित्याग कराकर दैगम्बरीदीक्षा प्रदान की। इससे सिद्ध हो जाता है कि हरिषेण गृहस्थमुक्ति के समर्थक नहीं हैं। अत: उनके द्वारा उक्त श्लोक में प्रयुक्त सिद्धि शब्द भी मोक्ष का वाचक नहीं है।
इस प्रकार यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखिका एवं लेखक ने बृहत्कथाकोश को यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया है कि 'अणुव्रतधरः कश्चिद्' (क्र.५७ / ५६७ / पृ. ११९) इत्यादि श्लोक में सिद्धि शब्द मोक्ष का वाचक है, वह असत्य है।
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