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अ०२३
.. बृहत्कथाकोश / ७४१ कि जब वह क्षुल्लक पद को छोड़कर दिगम्बरमुनि-दीक्षा ग्रहण करता है, तभी मुक्ति का पात्र बनता है। व्रतधारी स्त्रियों में आर्यिकाओं के अतिरिक्त क्षुल्लिका का पद भी बतलाया गया है। ये विशेषताएँ केवल दिगम्बरमत में मिलती हैं, यापनीय और श्वेताम्बर मतों में नहीं।
४. बृहत्कथाकोश में दिगम्बरवेश को ही मुक्ति का मार्ग बतलाया गया है, वस्त्रधारण करने को मुक्ति में बाधक कहा गया है।
५. उक्त ग्रन्थ के भद्रबाहुकथानक में दिगम्बरमत को ही तीर्थंकरप्रणीत प्ररूपित किया गया है, श्वेताम्बरमत को द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप शिथिलाचार से उत्पन्न बतलाया गया है तथा यापनीयसम्प्रदाय को उस शिथिलाचारजनित श्वेताम्बरसम्प्रदाय से उद्भूत कहा गया है।
६. बृहत्कथाकोशकार हरिषेण उसी पुन्नाटसंघ के थे, जिसके हरिवंशपुराणकार जिनसेन थे। जिनसेन दिगम्बर थे, अतः हरिषेण भी दिगम्बर थे।
७. बृहत्कथाकोश में 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के कर्ता स्वामिकार्तिकेय (क्र.१३६) और षट्खण्डागम के उपदेष्टा आचार्य धरसेन एवं कर्ता पुष्पदन्त-भूतबलि (क्र.२६) के कथानक वर्णित हैं। ये सब दिगम्बर थे।
८. हरिषेण ने दिगम्बरग्रन्थ 'भगवती-आराधना' से अनेक कथाओं के बीज लेकर बृहत्कथाकोश के बहुत से कथानकों की रचना की है।
ये सिद्धान्त और तथ्य इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ या श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। इसलिए उसमें जो स्त्री को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध बतलाया गया है, वह अन्यथानुपपत्ति से इस निर्णय पर पहुँचाता है कि या तो वह प्रक्षिप्त है अथवा सिद्धान्तग्रन्थों के गहन अनुशीलन के अभाव में हरिषेण ने अनभिज्ञतावश वैसा लिख दिया है। उनकी ऐसी अनभिज्ञता अन्यत्र भी प्रकट हुई है। यथा, उन्होंने लिखा है-"रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो दिवि सुरो महान्" (१०८/
४. देखिये, आगे शीर्षक–'गृहस्थमुक्तिनिषेध' तथा 'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण'। अनुच्छेद
क्र. ७। ५. देखिये, आगे शीर्षक-'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण'/ अनुच्छेद क्र.६ । ६. देखिये, आगे शीर्षक ७ 'भद्रबाहुकथानक में कोई भी अंश प्रक्षिप्त नहीं।' ७. "पुन्नाटसङ्घाम्बरसन्निवासी ---" बृहत्कथाकोश/ प्रशस्ति /श्लोक/३/पृ. ३५५ । ८. आराधनोवृतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम्। हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले ॥ ८ वही/ प्रशस्ति।
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